मूल अंग्रेजी कहानी Anklet का हिन्दी में लिप्यांपतरण – पायल
आज भी मुझे उसका मासूम चेहरा याद है। उस का नाम चांदनी था। दो-तीन महीने पहले ही उसने हमारे घर आना शुरू किया था। मेरे पति का इस शहर में तबादला हुआ था। यहाँ घर किराये पर लेकर, हमने इस शहर में नई ज़िंदगी की शुरूआत की थी। आस पड़ोस से पूछकर मैंने उसी कामवाली को काम पर रखा था, जो पड़ोस के दूसरे घरों में काम करती थी। पड़ोस में पूछने पर पता चला कि एक चांदनी नाम की लड़की घर-घर जाकर दूध बेचती है। मैंने भी उससे दूध बंधवा लिया। चांदनी ने अगले दिन से ही दूध पहुंचाना शुरू कर दिया।
रोज़ाना शाम को तकरीबन ७ बजे वह नियमित रूप से हमारे मोहल्ले में दूध देने आ जाती। चांदनी…. यूं तो कुछ खास नहीं , बस एक साधारण सी लड़की थी। लेकिन किसी अन्य लड़की के विपरीत उस पर ईश्वर की शायद विशेष कृपा थी। उसकी सादगी उसके व्यक्तित्व को और निखार रही थी। हर दिन वह घंटी बजाती थी, चेहरे पर एक मीठी मुस्कुराहट के साथ, धीरे-धीरे दूध को बर्तन में डालती । इसी तरह ही एक दिन दरवाजे की घंटी बजी। मैंने दूध का बर्तन अपने हाथों में लिये दरवाज़ा खोला। चांदनी बर्तन में दूध डालते हुए, मेरे पैरों की ओर देख रही थी। इस असामान्य से इशारे से मैं जरा सचेत हो गई। मैंने अपनी साड़ी और सैंडल को देखा, कुछ भी गलत नहीं था। चांदनी अब भी मेरे पैरों को घूर रही थीं।
‘‘ क्या हुआ चांदनी….. ऐसे क्यों देख रही हो? ‘‘ मैने हैरत भरे अंदाज़ से उससे पूछा।
अब उसकी तन्द्रा टूटी। ‘‘कुछ नहीं दीदी… ‘‘ उसने अपनी उंगली से मेरे पैरों की तरफ इशारा किया ।
मैने पूछा ‘‘ क्या है ……… कुछ भी तो नहीं ?‘‘
चांदनी ने कहा ‘‘ कितनी सुंदर है ना !‘‘
‘‘ अरे पगली क्या सुंदर है ?‘‘ मैं लगभग चिल्ला उठी थी।
‘‘ दीदी……. आपकी पायल ….‘‘ उसके मासूम से चेहरे पर जैसे चमक सी आ गयी थी।
मेरी तो हँसी छूट गई ‘‘ अच्छा……यह पायल ! तुझे अच्छी लगी। ‘‘
‘‘हां दीदी, बहुत अच्छी है। ‘‘ उसने मुस्कुराते हुए कहा।
वैसे तो चांदनी दूध देकर जल्द ही दूसरे घरों की ओर चल देती , लेकिन आज वो दरवाजे के पास टिक कर बैठ गई ।
बोली ‘‘ दीदी , कितने की है?‘‘ मुझे उसका यह मासूम सा सवाल बड़ा अच्छा लगा। मैंने भी बिना कुछ सोचे झट से जवाब दे दिया ‘‘ जहां तक मुझे याद है, यही कोई साढ़े चार सौ की ।‘‘
‘‘चार सौ पच्चास , इतनी मंहगी।‘‘ पायल की कीमत जानकर उसकी आँखे फटी रह गईं। मुझे अपने आप पर गुस्सा आ रहा था। मेरे लिये भले ही यह रकम इतनी बढ़ी नहीं थी, लेकिन एक दूध बेचने वाली के लिए तो यह बहुत बड़ी बात थी। मुझे अपने आप पर बहुत ही गुस्सा आ रहा था। मैं भी कितनी पागल हूं, उसे थोड़ी कम कीमत बताती तो क्या फर्क पड़ जाता ? कम से कम उसकी इच्छा इस कदर तो न मरती! …. स्वाभाविक है, बेटी गरीब घर की हो या अमीर की, सपने देखने का हक तो सभी का होता है! उसके भी कुछ अरमान होंगे, इच्छाएं होंगी………., कुछ आकांक्षाएं होंगी। इससे पहले कि मैं कुछ और कहती, वो उठकर चल दी ।
मैं उसे जाते हुए देख रही थी……उसके कदमों की चाल बहुत धीरे हो गई थी ।
उस दिन के बाद उसने कभी भी पायल का ज़िक्र नहीं किया। दूध पतीले में डालते समय उसका पूरा ध्यान मेरी पायल की तरफ ही होता था। मुझसे यह देखा नहीं गया। एक दिन मैंने भी फैसला किया। मैं बिलकुल ऐसी ही पायल ले आऊँगी, चांदनी के लिये। मैं दूसरे ही दिन बाजत्रार गई और ठीक वैसी ही पायल खरीद लाई । चांदनी कितनी खुश होगी न ! मैं उसकी मासूम आंखों में वही चमक देखना चाहती हूँ जो पहली बार मेरी पायल देखकर उसकी आंखों में आई थी।
आज मैं उसका बेसब्री से इंतजार कर रही थी। दूध के भगोने में चांदी की पायल डालकर, बाहर दरवाजे के पास रख दी थी। आएगी तो उसे सरप्राइज दूंगी। मैं दो-तीन बार बाल्कनी में जाकर सोसायटी के गेट की तरफ देख आई। आज मैं उसे यह उपहार देने के लिए बेहद उत्सुक थी। शाम के सात बज गये मगर वो नहीं आई। आम तौर पर वह इस समय तक आ जाती थी। हालांकि, कभी-कबार देर भी हो जाती थी। खैर, मैंने आज दरवाजा खुला ही रखा । धीरे-धीरे समय बीतता गया और मैं मन ही मन सोचने लगी, कभी-कभी उसे देर हो जाती थी। शायद थोड़ी देर में वह आ जाये। वैसे तो उसे इतना समय कभी लगता नहीं! आठ बजने को हैं। अब तो उसके आने की कोई गुंजाइश नहीं लगती । वह इतना लेट तो कभी नहीं हुई ! न जाने क्यों, लेकिन अब मुझे अपने आप पर ही गुस्सा आने लगा था। मेरी बैचेनी बढ़ती जा रही थी। मैं आकर कुर्सी पर बैठ गई, और उस पायल की डिबिया को देखती रही। और उन्हीं खयालों में गुम…. बैठे-बैठे मेरी आँख लग गई, इनके आने की आहट तक नहीं सुन पाई।
मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए अमर ने धीरे से आवाज दी ‘‘ कहाँ खो गई हो सरिता! ‘‘
अरे ! आप आ गये । आज …बस थोड़ा थक गई तो ….।‘‘ मैंने फटाफट पायल की डिबिया वहां से उठाकर अलमारी में छुपा दी। कि कहीं उनकी नजर न पड़ जाये और कहीं कुछ पूछ न बैठें। फिर मैं मुंह हाथ धोकर, चाय बनाने लगी।
मेरे दोनों हाथ काम में जितने व्यस्त थे, उससे कहीं ज्यादा मेरे दिमाग में चांदनी की बातें घूम रही थीं। लाख कोशिशों के बावजूद मैं उसे भुला नहीं पा रही थी। जाने – अनजाने मेरे ज़हन में वही बातें याद आ रही थीं, जब वो मेरे पैरों की तरफ देख रही थी। उससे पहली मर्तबा इतनी बातचीत ने मेरे दिल पर गहरा प्रभाव छोड़ा था। पता नहीं क्यों , मुझे उससे बहुत ही हमदर्दी होने लगी।
जाने क्यों, उस अजनबी लड़की से कोई पिछले जनम का नाता सा महसूस होने लगता। बार-बार यूँ लगता, मानो वो मेरे पीछे खड़ी है, वह बहुत ही खुश है, मुस्कुरा रही है। उसके पैरों में वही चांदी की पायल पहनी हुई है। एक पल को तो उसकी आवाज भी मेरे कानों में गूंजी ‘‘दीदी आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, आप ने मुझे इतना प्यारा तोहफा दे दिया। ‘‘ और फिर उसकी आंखों में आंसू भी भर आए। वो फूट-फूट कर रोने लगी थी, मानो कोई खौफनाक सा मंज़र देख डर गई हो। ऐसा लगा कि वो मेरे पीछे छुप कर कह रही हो, ‘‘दीदी …..मुझे कहीं छुपा लो।‘‘ और अगले ही पल फिर सन्नाटा….. मैंने अपने इर्दगिर्द देखा, चांदनी आखिर इस वक्त मेरे किचन में हो भी कैसे सकती है ? जरूर ये मेरा भ्रम ही है, मैं आज दिन भर उसी के बारे में सोच रही हूं ना! खैर…
उस रात खाना खाते समय भी मैंने इनसे ज़्यादा बातें नहीं की। मैं थकावट का बहाना बनाते हुए जल्द ही सोने के लिए अपने कमरे में चली गई । लेकिन मैं जानती थी, उस रात आंखों में नींद आना भी आसान नहीं था। पूरी रात चांदनी के ख्याल दिमाग में घूमते रहे, उसकी पायल की इच्छा ….और मेरा उसे पायल गिफ्ट करके सरप्राईज देना… वगेरह वगेरह…। मैं अपने आप को खूब समझाती रही, कि शायद आज वो कहीं व्यस्त हो, अपना जरूरी काम निपटाकर कल शायद लौट आए, मगर पता नहीं क्यों मेरी बैचेनी और आतुरता बढ़ती जा रही थी।
तीन दिन बीत गये, चांदनी नहीं आई। मेरी सारी धारणाएं गलत साबित हो रहीं थीं। कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा था कि कहीं से उसका कुछ पता चले। कोई नहीं जानता था कि वो क्यों नहीं आ रही ? कोई उसके घर का पता भी नहीं जानता ? और अगर मैं जान भी लेती तो कर भी क्या सकती थी, कैसे मैं अपने पति से कहती कि, मैं चांदनी के घर क्यों जाना चाहती हूँ ? मेरी मुश्किलें बढ़ती जा रहीं थीं।
आखिर चैथे दिन शाम के सात बजे दरवाजे की घण्टी बजी। मैं रसोईघर से एकदम तेज़ कदमों से दरवाजे की ओर जा पहुंची। लगा कहीं चांदनी न हो। लेकिन दरवाज़ा खोलते ही देखा तो चांदनी के बजाय- वहाँ कोई दस- बारह साल का लड़का, वही दूध का कंटेनर लिये खड़ा था, जो कि चांदनी लाया करती थी। इससे पहले कि मैं कुछ कहती, वह तीन दिन नहीं आ सका इस बात की माफी मांगने लगा। उसकी बातों को नजरअंदाज़ करते हुए मैं तत्परता से पूछ बैठी ‘‘चांदनी कहाँ है? क्याा हुआ उसे ?‘‘
और फिर उसने जो कहा , मेरे कान यह सब सुनने को कतई तैयार न थे, -‘‘मेमसाब, चांदनी अब यहाँ कभी नहीं आएगी । वो वहाँ चली गई जहाँ से कभी कोई वापस नहीं आता ।‘‘
मैं उसकी कही बातें समझ रही थी, मगर मेरा दिल उसे मानने को तैयार न था।
‘‘क्या ? ये सब कैसे हुआ? मैंने देखा उस छोटे से बच्चे की आँखों से आँसू बह रहे थे। रूंधे हुए गले से उसने उस दर्दनाक और खौफनाक मंजर की दास्तां बयां की ….
‘‘दीदी, चांदनी मेरी बड़ी बहन थी। मुझे जन्म देते ही माँ गुजर गईं। बाबा ने दूसरी शादी कर ली। नई माँ बहुत तेज़ है। उसकी चांदनी से नहीं बनती थी। घर का सारा काम चांदनी के उपर डालकर खुद दिन भर घूमती रहती थी। दिन भर चांदनी सारा काम करती और रात को माँ की फटकार सहती। हम दोनों बहुत ही तकलीफों में जीये मेमसाब।
उस दिन चांदनी रात आठ बजे घर लौटी तो नई माँ ने चांदनी के चूड़ी वाले बक्से में साड़े चार सौ रूपये देख लिये। फिर तो आकर चांदनी पर बिफर पड़ीं।
‘‘जरूर तूने ये मेरे पर्स में से चुराये होंगे। वरना तेरे पास इतने पैसे कहाँ से आये? ‘‘माँ ने उसे चोर कहा और बहुत बुरे-बुरे इल्जाम लगाये।
चांदनी ने बहुत समझाया कि ये पैसे उसने पाई -पाई करके जमा किये हैं। लेकिन माँ तो उसकी कोई बात सुनने को तैयार नहीं थी। वो चांदनी को डांटने और मारने का कोई बहाना नहीं चूकती थी। मैं यह सब चुपचाप देख रहा था। कुछ नहीं कर सका।
मैं जानता था अगर मैं भी बीच में आता तो मुझे भी उसकी सजा भुगतनी पड़ती। सौतेली माँ के खतरनाक चेहरे ने मेरे हाथ पैर बांध दिये थे। चांदनी अपने बिस्तर पर सिसकती रही। मैं कुछ भी नहीं कह सका। रो रोकर सो गया।
दूसरे दिन सुबह उठा तो सोतेली माँ जोर-जोर से चिल्लौकर रो रही थी। वो सब मगरमच्छ के आँसू थे। देखा चांदनी नीचे ज़मीन पर सोई थी और उसके उपर चादर ढकी थी। घर के आसपास मोहल्ले वालों की भीड़ लगी थी। गली की और भी औरते माँ के साथ रोने लगी थीं।
मैं मूक बनी चांदनी की कहानी सुन रही थी। उसने अपना कंटेनर उठाया और धीरे – धीरे सीडियों से नीचे उतरने लगा…..
मैं यही सोचती रह गई कि शायद चांदनी की मौत के लिए कुछ हद तक मैं भी ज़िम्मेदार हूँ ।
मूल कहानीकार डॉ. विनोद आसुदानी, नागपुर —
Anklet अंग्रेजी कहानी से हिन्दी लिप्यान्तरण
हर्षा मूलचंदानी