वीर सावरकर का आर्यसमाज से लगाव
मुस्लिम-लीग कराची के अधिवेशन में सत्यार्थप्रकाश को जब्त कराने का कुछ स्पष्ट सा प्रस्ताव पेश हुआ। मि० जिन्ना ने भी व्यक्त किया कि इससे हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा होना का भय है, जिसके कारण साम्प्रदायिक कलह की जड़ें ही केवल जमेंगी। फिर १५-१६ नवम्बर १९४३ में दिल्ली में मुस्लिम लीग की एक कौंसिल हुई और उसमें सत्यार्थप्रकाश के विरुद्ध एक प्रस्ताव पास किया गया जिसमें भारत सरकार से जोर के साथ कहा गया कि सत्यार्थप्रकाश के वे समुल्लास जिनमें धर्म-प्रवर्त्तकों, विशेषकर इस्लाम के पैगम्बरों के बारे में आपत्तिजनक और अपमानकर बातें हैं, तुरन्त जब्त कर लिए जायें। इसके बाद सिन्ध के मन्त्रिमण्डल में से भी यह आवाज आई कि सत्यार्थप्रकाश को जब्त कर लिया जाय। फिर हिन्दुओं के विरोध को देखकर सिन्ध सरकार ने सत्यार्थप्रकाश के प्रश्न को अखिल भारतीय प्रश्न बताकर भारत-सरकार के पास भेज दिया। इस सबका परिणाम यह हुआ कि आर्यसमाजी अपने धर्म ग्रन्थ पर यह आघात कैसे सहन कर सकते थे, चारों ओर हलचल-सी मच गई और सभा, प्रदर्शन, विरोध और प्रस्ताव पास होने लगे, सिन्ध के गवर्नर और भारत के वायसराय महोदय के पास तार खटखटाये जाने लगे। सार्वदेशिक सभा के निश्चयानुसार १९-२० फरवरी १९४४ को देहली में एक आर्यसम्मेलन किया गया जिसमें समस्त भारत के आर्यों ने बड़े उत्साहपूर्वक भाग लिया। प्रत्येक प्रकार से सत्यार्थप्रकाश की रक्षा और प्रचार करने का निश्चय किया गया। सत्यार्थप्रकाश की रक्षा के लिए तीन लाख रुपया एकत्रित करने का संकल्प हुआ। साथ ही सरकार को चुनौती दी गई कि यदि उसने सत्यार्थप्रकाश के विरुद्ध कुछ भी कदम उठाया तो उसे भी आर्यों का घोर मुकाबला करने के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए। आर्यों का जोश और प्रबल उत्साह तथा घोर विरोध देखकर या उनके सुदृढ़ संगठन से भयभीत होकर सिन्ध की सरकार ने तो यह घोषणा कर दी कि वह सत्यार्थप्रकाश के सम्बन्ध में अब कोई कदम न उठायेगी। मामला कुछ शान्त हुआ, दिन बीते और आर्यों का उत्साह भी कम होने लगा। फिर अकस्मात् बिना किसी हिन्दू मन्त्री से सलाह किये ही सिन्ध सरकार की ओर से ४ नवम्बर को आज्ञा निकली की सत्यार्थप्रकाश की तब तक कोई प्रति न छापी जाय जब तक उसमें से चौदहवें समुल्लास को न हटा दिया जाय। इस आज्ञा को सुनकर आर्य जगत् में फिर एकदम जोश की लहर दौड़ गई। अपने आचार्य द्वारा प्रणीत ग्रन्थ का सिन्ध सरकार द्वारा अपमान कैसे सहा जाय? पहिले से भी अधिक जोश फैल गया। २० नवम्बर को सार्वदेशिक सभा की एक ऐतिहासिक बैठक हुई जिसमें ६ घण्टे के वाद-विवाद और विचार-विनिमय तथा गम्भीर चिन्तन के पश्चात् इस अन्यायपूर्ण आज्ञा को रद्द करवाने तथा अपने धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए श्री घनश्यामसिंह जी गुप्त को पूर्ण अधिकार दिया गया कि वे एक कमेटी मनोनीत करें जिसे इस सम्बन्ध में सब उचित और आवश्यक कार्यवाही करने के लिए पूर्ण अधिकार होंगे। सभा ने आर्य जनता को विश्वास दिलाया कि धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए कोई भी प्रयत्न छोड़ा नहीं जाएगा और प्रत्येक बलिदान के लिए उद्यत रहा जाएगा।
हिन्दू जाति के निःस्वार्थ सेवक श्री भाई परमानन्द जी ने केन्द्रीय असेम्बली में सिन्ध-सरकार द्वारा सत्यार्थप्रकाश पर लगाई गई पाबन्दी की निन्दा की और इसे भारत रक्षा कानून का दुरुपयोग बतलाया। भाई जी के स्थगित प्रस्ताव पर बहस हुई। कांग्रेसी सदस्य धीरे-धीरे वहां से खिसक गए और उन्होंने भाई के पक्ष में अपनी सम्मति नहीं दी। यद्यपि यह प्रस्ताव असेम्बली में पास न हो सका किन्तु फिर भी समस्त भारत और सरकार का ध्यान इस प्रश्न की ओर आकर्षित हो गया और यह प्रश्न सबकी चर्चा का विषय बन गया। सब हिन्दू नेता और विचारशील कांग्रेसी नेता भी सिन्ध सरकार की आज्ञा का विरोध करने लगे। महात्मा गांधी ने भी इस आज्ञा को अनुचित बतलाया। यहीं तक नहीं, कुछ निष्पक्ष मुसलमानों ने भी इस पाबन्दी को धार्मिक अत्याचार और पाप कहकर इसका विरोध किया।
हमारे चरित्रनायक वीर सावरकर ने इस सम्बन्ध में भारत के वायसराय और सिन्ध गवर्नर के नाम तार दिए, जिनके आशय निम्नलिखित हैं:-
वायसराय को तार-
सत्यार्थप्रकाश पर जो कि हिन्दुओं की तथा विशेषकर आर्यों का आदरणीय पुस्तक है, सिन्ध सरकार द्वारा प्रतिबन्ध अवश्य ही साम्प्रदायिक वैमनस्य उत्पन्न करेगा। मैं केन्द्रीय सरकार से अनुरोध करता हूं कि वह इस प्रतिबन्ध को तत्काल ही रद्द कर दे। प्रत्येक धार्मिक पुस्तक को दूसरों के धर्मों की अलोचना करनी ही पड़ती है। यदि एक सम्प्रदाय की धर्म पुस्तक पर इस आधार पर प्रतिबन्ध लगाया गया है तो कुरान के विरुद्ध भी हिन्दुओं द्वारा आन्दोलन उठ खड़ा होगा और यहूदियों द्वारा न्यूटैस्टामैण्ट पर तथा शियों द्वारा सुन्नियों के विरुद्ध। किसी भी सभ्य तथा न्यायकारी केन्द्रीय सरकार का यह कर्त्तव्य है कि ऐसी कट्टरता को रोक दे और एक दूसरे के प्रति समभाव का प्रदर्शन करे। ऐसा समभाव जिसके अर्थ हैं कि समस्त धर्मों के प्रति सब सम्प्रदाय सद्भावना रखें और समस्त नागरिकों को यह स्वतन्त्रता हो कि वे शान्ति और उदारता की सीमा के अन्दर अपना अपना धर्म स्वतन्त्र रूप से मान सकें।
सिन्ध-गवर्नर को तार-
कृपया अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा कीजिये और सत्यार्थप्रकाश पर, चाहे उसके किसी एक भाग पर और चाहे समस्त पुस्तक पर, प्रतिबन्ध को हटा दें। धार्मिक पुस्तकों के लिये सद्भावना और लोगों को किसी धर्म में विश्वास करने की स्वतन्त्रता की सभ्य और न्यायकारी सरकार का मौलिक सिद्धान्त होना चाहिए। सत्यार्थप्रकाश हिन्दुओं और विशेषकर आर्यों का धर्म पुस्तक है। उसपर प्रतिबन्ध के अर्थ यही होंगे कि हिन्दू भी कुरान के कुछ भागों के विरुद्ध आन्दोलन करें। यह धार्मिक विष यदि सिन्ध में से जड़ से दूर न किया गया तो यह समस्त भारत में फैल जाएगा और मस्जिद के सामने बाजे के प्रश्न के समान सदैव ही साम्प्रदायिक झगड़े करवाता रहेगा। कृपया इस द्वेषपूर्ण प्रतिबन्ध को तत्काल ही हटा लें।
वीर सावरकर ने केवल ये तार देकर ही विश्राम नहीं पा लिया किन्तु वे इस सम्बन्ध में वायसराय महोदय से २७ नवम्बर को स्वयं भी मिले और उन्होंने उनसे कहा कि धर्म की समस्त पुस्तकें- चाहे पुराण अथवा कुरान सबकी सब आज से भिन्न अलग-अलग वातावरण में लिखी गई हैं। अतः सब में एक दूसरे के प्रति आलोचना पाई जाती है। आज जबकि प्रत्येक व्यक्ति नागरिक विधान के अधीन है तब धर्म की नींव परस्पर विशाल हृदयता पर होनी चाहिए। अतः सत्यार्थप्रकाश पर से पाबन्दी यथाशीघ्र हटनी चाहिए।
सावरकर जी के हृदय में हिन्दुत्व के प्रति प्रेम और अगाध श्रद्धा है, यही कारण है कि जब कभी हिन्दुओं के धार्मिक और नागरिक अधिकारों पर कहीं भी कुछ आघात होने लगे तो आप जीजान से उसके दूर करने का प्रयत्न करते हैं।
— प्रेमचन्द्र विद्याभास्कर
(प्रस्तुति– प्रियांशु सेठ)
[सन्दर्भ- “वीर सावरकर क्रान्तिकारी नेता की साहसपूर्ण जीवनी और व्याख्यान”; लेखक- श्री प्रेमचन्द्र विद्याभास्कर; प्रकाशक- गोविन्दराम हासानन्द, आर्य साहित्य भवन, नई सड़क, देहली; संस्करण- प्रथम; पृष्ठ- ८३-८८]