धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

क्या दर्शन नास्तिकता का समर्थन करते है?

टाइम्स ऑफ़ इंडिया समाचार पत्र, 1 फरवरी, 2019, दिल्ली संस्करण के पृष्ठ 18 पर श्री पवन कुमार वर्मा, नेता जनता दल यूनाइटेड का Prayer as well as Profit के नाम से लेख प्रकाशित हुआ। इस लेख में लेखक ने 6 में से 5 दर्शन को नास्तिक बता रहे हैं। दर्शन के विषय में वर्तमान में प्रचलित सभी धारणाएँ पश्चिमी लेखकों के सिद्धांतों पर आधारित हैं। पश्चिमी लेखकों का यह मानना था कि सांख्य रचियता कपिल अनीश्वरवादी थे अर्थात नास्तिक थे। 6 दर्शनों का परस्पर विरोध हैं। वेदोद्धारक एवं प्रसिद्द चिंतक स्वामी दयानन्द की दर्शनों के विषय में अनोखी सूझ थी। वेदों के भाष्य को पूर्ण करने के बाद स्वामी जी दर्शनों का भाष्य करने के इच्छुक थे। स्वामी दयानन्द के दर्शन सम्बंधित चिंतन में दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं। प्रथम दर्शनों में परस्पर विरोध नहीं हैं। दूसरा दर्शन अनीश्वरवादी नहीं है। इस लेख के माध्यम से दर्शनों के विषय में कुछ विचार प्रकाशित किये जा रहे हैं। अधिक जानकरी के लिए श्री उदयवीर शास्त्री जी द्वारा कृत 6 दर्शनों के भाष्य का स्वाध्याय अपेक्षित हैं।-डॉ विवेक आर्य

वैदिक दर्शनों का परिचय

पण्डित राजवीर शास्त्री (पूर्व सम्पादक : दयानन्द सन्देश)
प्रस्तुति : भावेश मेरजा

वैदिक वांग्मय में 6 वैदिक दर्शनों का महत्वपूर्ण स्थान है। पंडित राजवीर शास्त्री जी ने सभी दर्शनों का संक्षिप्त परिचय अपनी लेखनी द्वारा दिया था। पाठकों के लाभ के लिए उसे यहाँ दिया जा रहा हैं।

ब्रह्मसूत्र, वेदान्त अथवा उत्तर मीमांसा दर्शन का सामान्य परिचय
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महर्षि व्यास द्वारा प्रणीत इस दर्शन को ‘ब्रह्म सूत्र’ अथवा ‘उत्तर मीमांसा’ भी कहते हैं।

इस दर्शन पर शंकराचार्य, रामानुज, मध्वाचार्यादि विभिन्न आचार्यों ने अपने मत की मान्यता के अनुसार व्याख्यायें करके इस दर्शन के यथार्थ स्वरूप को ही छिपा दिया है।
और अधिकतर इन आचार्यों की अपनी मान्यताओं को ही ‘वेदान्त’ नाम से माना जाने लगा है। परन्तु यथार्थ में मूल दर्शन के विरुद्ध व्याख्याकारों की मान्यतायें कैसे माननीय हो सकती हैं?

विचार करने की बात तो यह है कि यदि अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैतवाद, शुद्धाद्वैतादि वेदान्त दर्शन के मौलिक सिद्धान्त हैं, तो इन वादों का प्रवर्तक इन आचार्यों को क्यों माना गया है। फिर तो वेदान्त दर्शनकार को ही इन वादों का प्रवर्तक मानना उचित है। परन्तु ये वाद वेदान्त के नहीं हैं। ये इन आचार्यों ने स्वयं कल्पना करके बनाये हैं और ये एक-दूसरे के प्रबल विरोधी हैं।

वेदान्त का अर्थ है – वेदों के अन्तिम सिद्धान्त।

व्यास मुनि के शिष्य जैमिनि ने पूर्व मीमांसा में जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, वे वास्तव में व्यास मुनि को भी अभीष्ट हैं।

जैमिनि ने ‘चोदना लक्षणो धर्म:’ कहकर धर्म को वेदोक्त माना है। और धर्म का उद्देश्य है – मोक्ष अथवा ईश्वर की प्राप्ति। वेदान्त दर्शन उस ईश्वर (ब्रह्म) का ही विशेष प्रतिपादन करता है। धर्म जिज्ञासा और ब्रह्म जिज्ञासा का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है।

इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म जगत् का कर्ता, धर्त्ता, संहर्ता होने से जगत् का निमित्त कारण है, उपादान अथवा अभिन्न निमित्तोपादान कारण नहीं।

ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, आनन्दमय, नित्य, अनादि, अनन्तादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। वह जन्म-मरणादि क्लेशों से रहित है, वह निराकार तथा नित्य है। प्रकृति को कार्यरूप करके जगत की रचना करता है, परन्तु स्वयं अखण्ड, निर्विकार सत्ता है। ऋग्वेदादि चारों वेदों का उपदेष्टा वही है। जगत् की समस्त रचना तथा वेदोक्त बातों में परस्पर कहीं भी विरोध नहीं है, अत: समन्वय होने से वेद ज्ञान को देनेवाला तथा जगत् का कर्त्ता एक ही ब्रह्म है। वह ही सर्वनियन्ता होकर जीवों को कर्मानुसार फलों की व्यवस्था करता है।

जीव-ब्रह्म की एकता तथा जगन्मिथ्या का सिद्धान्त मूल वेदान्त के विरुद्ध होने से मिथ्या है।

इस दर्शन के प्रथम सूत्र ‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा’ से ही स्पष्ट होता है कि जिसे जानने की इच्छा है, वह ज्ञेय = ब्रह्म से भिन्न है। अन्यथा स्वयं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है? और यह सर्व विदित है कि जीवात्मा अल्प, एकदेशी तथा अल्प सामर्थ्य वाला है तथा वह दु:खों से छूटना चाहता है। परन्तु ब्रह्म के गुण इससे भिन्न हैं।

वेदान्त में मोक्ष में भी जीवात्मा की सत्ता पृथक् से स्वीकार की है।

और जो वस्तु सत् है, उसका कारण में लय तो सम्भव है, अभाव नहीं, इस सिद्धान्त के अनुसार कार्य जगत् को भी मिथ्या नहीं कहा जा सकता।

और नवीन वेदान्तियों का यह कथन भी मिथ्या है कि वेदान्त में कर्मों के त्याग तथा केवल ज्ञान का उपदेश है। इस दर्शन में कर्म करने का स्पष्ट उपदेश मिलता है। इस विषय में – वेदान्त दर्शन (3.1.9-11) सूत्रों में सुकृत-दुष्कृत कर्मों का, वेदान्त दर्शन (3.3.3) में स्वाध्याय करने का, वेदान्त दर्शन (3.4.60-61) सूत्रों में काम्य कर्मों को करने का कथन और वेदान्त दर्शन (3.4.19) में अग्निहोत्रादि कर्मों के अनुष्ठान का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त ब्रह्म की उपासना के लिये यमादि योगांगों के अनुष्ठान करने का वर्णन किया गया है। अत: नवीन वेदान्त की मान्यतायें मूल वेदान्त से सर्वथा विरुद्ध होने से मिथ्या ही हैं।

पूर्व मीमांसा दर्शन का सामान्य परिचय
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महर्षि जैमिनि द्वारा प्रणीत इस दर्शन में धर्म और धर्मी का वर्णन किया गया है।

इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मन्त्रों का विनियोग, यज्ञों की सांगोपांग प्रक्रियाओं का ऊहापोह किया गया है।

यदि योग दर्शन अन्त:करण की शुद्धि के उपायों तथा अविद्या के नाश के उपायों का वर्णन करता है, तो मीमांसा मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन तक के कर्तव्य कार्यों का वर्णन करता है, जिससे समस्त राष्ट्र की सर्वविध उन्नति सम्भव है। अश्वमेधादि यज्ञों का वर्णन इसी बात के परिचायक हैं।

वैशेषिक दर्शन के ‘तदवचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्’ तथा इसी दर्शन के प्रशस्तपाद भाष्य के ‘तच्चेश्वरनोयनाभिव्यक्ताद्धर्मादेव’ में जो वेदों को ईश्वरोक्त होने से प्रामाणिक माना गया है और वेदोक्त बातों को ही धर्म माना है, उन्हीं बातों की पुष्टि मीमांसा में ‘अथातो धर्म जिज्ञासा’ तथा’ चोदनालक्षणो धर्म:’ कहकर की है।

यथार्थ में क्रियात्मक धर्म का उदात्त रूप यज्ञ है और यज्ञों की मीमांसा इस दर्शन में की गई है।
यज्ञादि कर्म काण्ड से वेद मन्त्रों का अत्यधिक सम्बन्ध है। सम्पूर्ण कर्म काण्ड मन्त्रों के विनियोग पर आश्रित है। मीमांसा शास्त्र में मन्त्रों के विनियोग का विधान किया गया है।

अत: धर्म के लिये वेद को जैमिनि ने भी परम प्रमाण माना है और जैसे निरुक्त में वेद मन्त्रों की सार्थकता के विषय में कौत्स के पूर्वपक्ष को रखकर युक्तियुक्त उत्तर दिया गया है, वैसे ही मीमांसा (1.2.1) में वेद मन्त्रों को सार्थक कहकर विपक्ष के प्रश्नों का समाधान किया है।
और मीमांसा में वैदिक यज्ञों पर सांगोपांग ऊहापोह भी किया गया है।

इसमें प्रधान भाग तीन माने हैं – दर्शपूर्णमास, ज्योतिष्टोम = सोमयाग और अश्वमेध। ये तीनों प्रकृति याग होने से प्रधान हैं और उनके जो विकृत याग अग्निष्टोम आदि हैं, वे अप्रधान माने गये हैं।

यज्ञों में मन्त्रों के विनियोग पर जैमिनि मुनि ने श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्या, ये मौलिक आधार माने हैं, जिन की व्याख्या इस दर्शन में ही देखी जा सकती है।

ऋत्विजों के कर्मों पर विचार, संवत्सर यज्ञादि का वैज्ञानिक वर्णन, मन्त्र का लक्षण, वेद का लक्षण, वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों का भेद, वेदों का स्वत: प्रामाण्य, मन्त्रों के स्वर सहित पाठ और यज्ञ में एकश्रुति पाठ पर विशेष विचार, देवता विचार, वर्णों को यज्ञाधिकार, स्त्रियों को यज्ञ का अधिकार, निषाद को भी यज्ञ करने का अधिकार, इत्यादि विषयों पर इस दर्शन में बहुत गूढ एवं स्पष्ट विचार किया गया है।

योग दर्शन का सामान्य परिचय
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महर्षि पतञ्जलि रचित योग दर्शन में ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्टरूप से कथन किया गया है।

सांख्य और योग के सिद्धान्तों में पर्याप्त समता है।

इसमें ईश्वर का सत्य स्वरूप, मोक्ष प्राप्ति के उपाय तथा वैदिक उपासना पद्धति का विशेषरूप से वर्णन किया गया है।

योग किसे कहते है? जीव के बन्धन के कारण क्या है? योग साधक की विभिन्न स्थितियाँ तथा विभूतियाँ कौन-कौन-सी है? मन की वृत्तियाँ कौन-सी है? मन का सम्बन्ध कब तक पुरुष के साथ रहता है? चित्तवृत्तियों के निरोघ के क्या उपाय हैं? इत्यादि यौगिक विषयों का विस्तृत वर्णन किया गया है।

वर्तमान काल में आस्तिक जगत् में उपासना पद्धति के नाम पर जो पाखण्ड तथा परस्पर विरोधी परम्पराएँ प्रचलित हो रही हैं, वे उपासना योग की पद्धति के अनुकूल न होने से मिथ्या हैं।

देवी-देवताओं की प्रतिमाओं की पूजा, देवी-जागरण, कब्रों की पूजा, उच्च स्वर से ईश्वर का आह्वान करना, घण्टा-घडियाल बजाकर ईश्वर की उपासना समझना, इत्यादि सभी मान्यतायें योग भ्रष्ट एवं योग से विमुख लोगों द्वारा चलाई गई हैं।

परमेश्वर के मुख्य नाम ओम् (प्रणव) का जाप न करके अन्य नामों से परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना अपूर्ण ही है।

योग दर्शन के अनुसार परमेश्वर का ध्यान बाह्य न होकर आन्तरिक ही होता है।

जब तक इन्द्रियाँ बाह्यमुखी होती हैं, तब तक परमेश्वर का ध्यान कदापि सम्भव नहीं है।

इसलिये ईश्वर की सच्ची भक्ति के लिये योग दर्शन एक अनुपम शास्त्र है।

योग दर्शन पर महर्षि व्यास का प्राचीन एवं प्रामाणिक भाष्य उपलब्ध होता है।

वैशेषिक दर्शन का सामान्य परिचय
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महर्षि कणाद रचित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप का कथन किया गया है।

इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेयस सिद्धि के साधन को धर्म माना गया है।

अत: मानव के कल्याण के लिये तथा पुरुषार्य चतुष्टय की सिद्धि के लिये धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक माना गया है।

धर्म के इस सत्य स्वरूप को न समझकर मतमतान्तर वालों ने जो संसार में धर्म के नाम पर बाह्याडम्बर बना रखा है, और वे पारस्परिक विद्वेषाग्नि से झुलस रहे हैं, उसका समूल निराकरण धर्म के सत्य स्वरूप को समझने से हो जाता है।

इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय, इन छ: पदार्थों के साधर्म्य तथा वैधर्म्य के तत्त्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति मानी है।

इस दर्शन की यह साधर्म्य-वैधर्म्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है, जिसको न जानने से भ्रान्तियों का निराकरण करना सम्भव नहीं है और वेदादि-शास्त्रों को समझने में भी अत्यधिक भ्रान्तियाँ उत्पन्न होती हैं।

जैसे किसी नवीन वेदान्ती ने अद्वैतवाद को सिद्ध करने के लिए कह दिया – ‘जीवो ब्रह्मैव चेतनत्वात्’ अर्थात् चेतन होने से जीव तथा ब्रह्म एक ही हैं। परन्तु इस मान्यता का खण्डन साधर्म्य-वैधर्म्य से हो जाता है।

यद्यपि ब्रह्म-जीव दोनों ही चेतन हैं, किन्तु इस साधर्म्य से दोनों एक नहीं हो सकते। इनके विशेष धर्म इनके भेदक होते हैं।

जैसे – चार पैर मात्र होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। ब्रह्म के विशेष धर्म हैं – सर्वत्र व्यापक, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्त्तादि और जीव के विशेष धर्म हैं – परिच्छिन्न, अल्पज्ञ, भोक्ता इत्यादि।

इसी प्रकार प्रकृति आदि पंचमहाभूत विशेष धर्मों के कारण ही भिन्न-भिन्न कहलाते हैं।

इस दर्शन की सूक्ष्म पदार्थों के स्वरूप को समझाने वाली पद्धति को न जानने से ही वेदान्त दर्शन के सूत्रों की व्याख्या में अत्यधिक भ्रान्तियाँ उत्पन्न हुईं।

ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है अथवा निमित्त कारण? इस भ्रान्ति का निराकरण इस दर्शन के ‘कारणगुणपूर्वक: कार्यगुणो दृष्ट:’ अर्थात् कारण के गुण कार्य में होते हैं, इस नियम को समझने से भलीभाँति हो जाता है।

इस दर्शन की कसौटी पर परीक्षा करने पर अद्वैतवादादि मिथ्यावाद स्वत: ही धराशायी हो जाते हैं।

यह दर्शन वेदोक्त धर्म की ही व्याख्या करता है।

इस दर्शन में वेदों को ईश्वरोक्त होने से परम प्रमाण माना गया है।

इस दर्शन के सूत्रों पर प्राचीन ‘प्रशस्त पाद भाष्य’ उपलब्ध होता है।

सांख्य दर्शन का सामान्य परिचय
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महर्षि कपिल रचित इस दर्शन में सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना है।

इस दर्शन का यह स्पष्ट सिद्धान्त है कि अभाव से भाव अर्थात् असत् से सत् की उत्पत्ति कदापि सम्भव नहीं है।

सत् कारण से ही सत्कार्यों की उत्पत्ति हो सकती है।

और यह अचेतन प्रकृति परब्रह्म के निमित्त से पुरुष के लिये प्रवृत्त होती है।

प्रकृति से सृष्टि रचना का क्रम तथा संहार का क्रम इसमें विशेष रूप से बताया गया है।

नवीन वेदान्त की जगत् को मिथ्या मानने की मान्यता का इस दर्शन से समूल उन्मूलन हो जाता है।

इस दर्शन में प्रकृति को परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित 24 कार्य पदार्थों का स्पष्ट वर्णन किया गया है और पुरुष 25वां तत्त्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है।

इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदाथों का कारण तो है, परन्तु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है।

पुरुष चेतन तत्त्व है तो प्रकृति अचेतन।

पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, प्रकृति स्वयं भोक्त्री नहीं है।

पुरुष प्रति शरीर भिन्न भिन्न होने से अनेक हैं।

प्रकृति-पुरुष के सत्य स्वरूप को जानना ही विवेक कहलाता है और विवेक को प्राप्त करना ही मोक्ष कहलाता है।

महर्षि कपिल के विषय में नवीन दार्शनिकों की यह मिथ्या धारणा है कि वे नास्तिक हैं, क्योंकि वे ईश्वर को नहीं मानते।

परन्तु दर्शनों के पारदृश्वा महर्षि दयानन्द ने इस भ्रान्ति को मिथ्या बताते हुए स्पष्ट लिखा है – ‘जो कोई कपिलाचार्य को अनीश्वरवादी कहता है, जानो वही अनीश्वरवादी है, कपिलाचार्य नहीं।’ (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास)

कपिलाचार्य को नास्तिक बताने वाले प्राय: इस सूत्र को उद्धृत किया करते हैं – ‘ईश्वरासिद्धे:’ (सांख्य दर्शन 1.92) अर्थात् इस सूत्र में ईश्वर की सिद्धि का खण्डन किया है। परन्तु उनकी यह मान्यता प्रकरण विरूद्ध होने से सत्य नहीं है। सूत्र में पच्चमी विभक्ति हेतु में है, जिससे स्पष्ट है कि प्रतिपाद्य प्रतिज्ञा कुछ और है। (सांख्य दर्शन 1.90,91) सूत्रों में कहा है कि ईश्वर का योगियों को मानस प्रत्यक्ष होता है। यदि ईश्वर का मानस प्रत्यक्ष न माना जाये, तो क्या आपत्ति होगी? इसका उत्तर (सांख्य दर्शन 1.92) सूत्र में दिया है कि ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकेगी।

इसी प्रकार सांख्य के ‘पुरुष’ शब्द को समझने में भी भ्रान्ति हुई है। सर्वत्र पूर्ण होने से परमात्मा को पुरुष कहते हैं और विभिन्न शरीरों में शयन करने के कारण जीवात्मा को भी पुरुष कहते हैं। निरुक्त (2.3) में जीवात्मा से परमात्मा को भिन्न बताने के लिये ‘अन्तर् पुरुष’ शब्द का और योग दर्शन में ‘पुरुष विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है। सांख्य में पुरुष शब्द से कहाँ परमेश्वर का तथा कहाँ जीवात्मा का ग्रहण होता है, इसका विवेचन विद्वान् पुरुष ही कर सकते हैं।

महर्षि दयानन्द ने सांख्यकार के गूढ़ तत्त्वों का अनुशीलन करके लिखा है कि – ईश्वर को जगत् का उपादान कारण सांख्य में नहीं माना है, निमित्त कारण मानने का खण्डन कहीं नहीं किया है। क्योंकि उपादान कारण मानने पर दोष दिखाते हुए लिखा है –

प्रधानशक्तियोगाच्य संगापत्ति:। (सांख्य दर्शन 5.8)

सत्तामात्राच्चेत् सर्वैश्वर्यम्। (सांख्य दर्शन 5.9)

इनकी व्याख्या में महर्षि दयानन्द लिखते हैं – ‘यदि पुरुष को प्रधान शक्ति का योग तो पुरुष में संगापत्ति हो जाये अर्थात् जैसे प्रकृति सूक्ष्म से मिलकर कार्यरूप में संगत हुई है, जैसे परमेश्वर भी स्थूल हो जाये। इसलिये परमेश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं है, किन्तु निमित्त कारण है। जो चेतन से जगत् की उत्पत्ति हो तो जैसा परमेश्वर समग्रेश्वर्ययुक्त है वैसा संसार में भी सर्वेश्वर्य का योग होना चाहिये, सो नहीं है। इसलिये परमेश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं, किन्तु निमित्त कारण है।’ (सत्यार्थ प्रकाश, सप्तम समुल्लास)

इन सांख्य सूत्रों से स्पष्ट है कि कपिलाचार्य ने ईश्वर की सत्ता का निषेध कहीं भी नहीं किया है, परन्तु परब्रह्म को जगत् का उपादान कारण मानकर सृष्टि उत्पत्ति मानने वालों के पक्ष में दोष दिखाये हैं और सांख्य सूत्रों में (3.55-57) ईश्वर को सर्ववित्, जीवों के कर्मफलों का दाता, तथा प्रकृति का नियन्ता मानकर ईश्वर की सत्ता को स्पष्ट रूप से माना है।

और पंचमाध्याय के (5.45-51) सूत्रों में तो ईश्वरोक्त वेद को भी अपौरुषेय होने से स्वत: प्रमाण माना है। इसलिये यहाँ भी वेदों को ईश्वरोक्त मानने से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया है। और वेदों को ईश्वरोक्त मानने पर बल देते हुए यह भी लिखा है कि वेद का कर्त्ता कोई भी मुक्तात्मा अथवा बद्ध पुरुष नहीं हो सकता है।

न्याय दर्शन का सामान्य परिचय
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महर्षि गोतम रचित इस दर्शन में प्रमाण-प्रमेयादि सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन किया गया है।

इसमें इन पदार्थों के वर्णन में यह क्रम रखा है — प्रथम उद्देश्य = पदार्थों का नाम पूर्वक कथन। फिर उनके लक्षण तथा तदनन्तर उनकी विस्तृत परीक्षा।

‘विद्ययाऽमृतमश्नुते’ इस वेद मन्त्र के अनुसार मोक्ष प्राप्ति का यह क्रम रखा गया है – पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृति होने से क्रमश: राग, द्वेष, लोभादि दोषों की निवृत्ति, अशुभ कर्मों में प्रवृत्ति का न होना तत्पश्चात् जन्मादि दु:खों की निवृत्ति से मोक्ष प्राप्त होता है।

और ‘प्रमाणैर्थपरीक्षण न्याय:’ इस न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों (निग्रहस्थानादि) का स्पष्ट निर्देश किया गया है।

संशयास्पद विषयों पर निर्णय करने का प्रकार, वाद की पञ्चावयवादिरूप पद्धति तथा वाद में होने वाले हेत्वाभास, जल्प, वितण्डावादादि दोषों का परिहार भी समझाया गया है।

संशय, मिथ्याज्ञानादि की निवृत्ति न्याय दर्शन की शैली से सुकर एवं सुगम हो जाती है।

और जो वेदादि शास्त्रों तथा ईश्वर को नहीं मानते हैं, उनके साथ अथवा किसी विषय पर वाद कैसे करना चाहिये? उनको पराजित करने की पञ्चावयवरूप परार्थानुमान की विशेष पद्धति का भी स्पष्ट उल्लेख मिलता है।

इस न्याय विद्या को आन्वीक्षिकी विद्या भी कहते हैं।

इस दर्शन में परमेश्वर को सृष्टिकर्त्ता, निराकार, सर्वव्यापक, जीवात्मा को शरीरादि से भिन्न परिच्छिन्न तथा प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण मानकर स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है।

इस दर्शन पर महर्षि वात्स्यायन का प्रामाणिक प्राचीन भाष्य उपलब्ध होता है।

[स्रोत : पातञ्जल योग दर्शन भाष्यम्, प्राक्कथन, पृ.11-15, प्रस्तुति : भावेश मेरजा]