अंधविश्वास, अंधश्रद्धा पर कानून जरुरी क्यों..?
अंधविश्वास और अंधश्रद्धा पर क़ानूनी लगाम बहुत जरुरी है। कुछ लोगों को यह मांग बड़ी बेतुकी सी लगेगी और सीधा मन में यह विचार जाएगा कि यह लोग तो हमारे धर्म-कर्म और पूजा पाठ पर पाबंदी लगवाना चाह रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं है, हमारी यह मांग किसी एक धर्म के लिए नहीं बल्कि अंधविश्वास और अंधश्रद्धा जहाँ भी है जिस रूप में है उन सबके लिए हैं। हालाँकि महाराष्ट्र और कर्नाटक भारत के दो राज्य ऐसे है जिनमें अंधविश्वास निरोधक कानून लागू है पर यह पर्याप्त नहीं हैं, इसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी इस कानून की जरूरत है। आखिर जरूरत क्यों है, इसे समझना बड़ा जरुरी है। यदि यह कानून पूरे देश में लागू नहीं किया गया तो 21 वीं सदी का विज्ञान हवा में रह जायेगा और यह अंधविश्वास रूपी दीमक अन्दर ही अन्दर समाज के विवेक को चट कर जाएगी। क्योंकि विश्वास और अंधविश्वास, श्रद्धा और अंधश्रद्धा में अंतर है। श्रद्धा विवेकवान बनाती है, तर्कबुद्धि को धार देती है, जबकि अंधश्रद्धा विवेक को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। श्रद्धा कब अंधश्रद्धा का रूप ले लेती है, मालूम नहीं चल पाता। यही कारण है कि लोग जागरूकता के अभाव में अंधश्रद्धा को ही धर्म और यहां तक जीवन का कर्तव्य मान बैठते हैं।
अंधविश्वास वह बीमारी है जिससे हमनें अतीत में इतना कुछ गवांया। इसकी पूर्ति करने में पता नहीं हमें कितने वर्ष और लगेंगे। हम जब इतिहास उठाते है भारत की अनेकों हार का कारण जानना चाहते तो उसमें सबसे बड़ा कारण हमेशा अंधविश्वास के रूप में सामने पाते हैं। याद कीजिए सोमनाथ के मंदिर का इतिहास जब सोमनाथ मंदिर का ध्वंस करने महमूद गजनवी पहुंचा था। तब सोमनाथ मंदिर के पुजारी इस विश्वास में आनन्द मना रहे थे कि गजनवी की सेना का सफाया करने के लिए भगवान सोमनाथ जी काफी है। लोग किले की दीवारों पर बैठे इस विचार से प्रसन्न हो रहे थे कि ये दुस्साहसी लुटेरों की फौज अभी चंद मिनटों में नष्ट हो जाएगी। वे गजनवी की सेना को बता रहे थे कि हमारा देवता तुम्हारे एक-एक आदमी को नष्टि कर देगा, किन्तु जब महमूद की सेना ने नरसंहार शुरू किया कोई 50 हजार हिंदू मंदिर के द्वार पर मारे गए और मंदिर तोड़कर महमूद ने करोड़ों की सम्पत्ति लूट ली। यदि उस समय 50 हजार हिन्दू इस अंधविश्वास में ना रहे होते और एक-एक पत्थर भी उठाकर गजनवी के सेना पर फेंकते तो सोमनाथ का मंदिर बच जाता और भारतीय धराधाम का सम्मान भी।
यह कोई इकलौती कहानी नहीं हैं जब धर्म की सच्ची शिक्षा देने वाले ऋषि-मुनियों के अभाव में अज्ञान व अन्धविश्वास, पाखण्ड एवं कुरीतियां वा मिथ्या परम्परायें आरम्भ हो गईं उनके स्थान पर ढोंगी, पाखंडियों के डेरे सजने लगे तब इसका परिणाम देश की गुलामी था। इनके कारण देश को अनेक विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ा और आज भी देश की धार्मिक व सामाजिक स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। इस स्थिति को दूर कर विजय पाने के लिए देश से अज्ञान व अन्धविश्वासों का समूल नाश करना जरुरी हैं वरना धार्मिक तबाही पिछली सदी से कई गुना बड़ी होगी।
सोमनाथ की भयंकर त्रासदी के बाद भी तथाकथित स्वयंभू लोगों ने जागरूकता फैलाना उचित नहीं समझा और इस एक मन्त्र के सहारे लोगों को प्रतीक्षा में बैठाकर कायर बना दिया कि “जब-जब धर्म की हानि होगी तब मैं अवतार बनकर आऊंगा” इसी अंधविश्वास में वीर जातियां धोखा खाती रही।
दुर्भाग्य आज सूचना क्रांति और तमाम तरक्की के इस दौर में भी यह संघर्ष जारी है, पाखंड जारी है, अंधविश्वास जारी हैं और आज ये लुटेरे अपने नये रूप धारण कर नये हमले कर रहे है। कोई बंगाली बाबा बनकर, भूत-प्रेत वशीकरण के नाम पर, कोई नौकरी दिलाने के बहाने मसलन आज भी ये गजनवी आशु महाराज के खोल से निकल रहे हैं।
काल बदले कलेंडर बदले, लेकिन अंधश्रद्धा अपनी जगह खड़ी रही। हाँ आर्य समाज और स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने आकर इस अंधविश्वास को हिलाया, लोगों को जगाया, किन्तु इन लोगों ने नये अंधविश्वास खड़ें कर लिए। आज यह लोग झाड़-फूंक के जरिये गर्भ में पल रहे शिशु के लिंग का पता लगाने और उसे बदलने के दावें कर महिलाओं को आसानी से शिकार बना रहे है, धर्म-मजहब के नाम पर महिलाओं और लड़कियों के यौन शोषण को अंजाम दे रहे हैं।
बात यही तक सिमित नहीं है इसी वर्ष हैदराबाद में एक शख़्स ने एक बच्चे की बलि दे दी थी। शख़्स ने एक तांत्रिक के कहने पर चंद्र ग्रहण के दिन पूजा की और बच्चे को छत से फेंक दिया। तांत्रिक ने उसे कहा था कि ऐसा करने से उसकी पत्नी की लंबे समय से चली आ रही बीमारी ठीक हो जाएगी। ऐसी ना जाने कितनी घटना हर रोज सुनने को मिलती हैं।
यदि देखा जाये तो आज समाज में अंधविश्वास का बाजार इतना बड़ा और बढ़ चूका है कि जिसकी चपेट में पढ़े लिखें भी उसी तरह आते दिख रहे है जिस तरह अशिक्षित लोग। जबकि यह लंबे संघर्ष के बाद मानव सभ्यता द्वारा अर्जित किए गए आधुनिक विचारों और खुली सोच का गला घोंटने की कोशिश है। यदि सरकार राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाकर अंधविश्वास फैलाने वाले तत्वों के खिलाफ, उसका प्रचार-प्रसार कर रहे लोगो के खिलाफ एक्शन लेने का प्रावधान बना दे आज भी काफी कुछ समेटा जा सकता है। ये सच है कि कानून तो अमल के बाद ही समाज के लिए उपयोगी बन पाता हैं, किन्तु फिर भी उम्मीद है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में पहुंच चुके हमारे समाज को ऐसे ऐतिहासिक कानून की आंच में विश्वास और अंधविश्वास के बीच अंतर समझने में कुछ तो मदद मिलेगी। हमारा अतीत भले ही कैसा रहा हो पर आने वाली नस्लों का भविष्य तो सुधर ही जायेगा।