क्या आप ईश्वर को जानते हैं?
ओ३म्
प्रत्येक मनुष्य को यह ज्ञात होना चाहिये कि जिस संसार में हम रहते हैं, यह जड् जगत अस्तित्व में कैसे आया है? इसका उत्तर ढूंढते हैं तो ज्ञात होता है कि यह सृष्टि मनुष्यों के द्वारा निर्मित नहीं है। मनुष्य इसे बना नहीं सकते। यदि बना भी सकते होते तो यह सृष्टि तो मनुष्य के अस्तित्व से पहले उत्पन्न हुई है। सृष्टि उत्पन्न होने के बाद ही मनुष्य व अन्य प्राणी इस सृष्टि में उत्पन्न हुए हैं। अतः मनुष्यों से भिन्न वह सत्ता कौन है जिसने इस सृष्टि को बनाया है व इसे चला रही है? विचार करने के बाद कुछ तथ्य सामने आते हैं जिनमें से एक यह है कि जिसने इस सृष्टि को बनाया है वह सर्वव्यापक, चेतन, ज्ञानवान, सृष्टि उत्पत्ति का ज्ञान रखने वाली तथा सर्वशक्तिमान सत्ता होनी चाहिये। फिर यह प्रश्न भी उत्पन्न होगा कि वह सत्ता स्वयं कैसे अस्तित्व में आयी है? इन सब प्रश्नों का उत्तर है कि ईश्वर अनादि व अनुत्पन्न है। वह सनातन अर्थात् कालातीत सत्ता है। उसे किसी ने उत्पन्न नहीं किया अपितु वह स्वयंभू है। इसी प्रकार से जीवात्मा का भी अस्तित्व है। यह भी एक सनातन व अनादि सत्ता है जिसे नित्य भी कहा जाता है। ईश्वर और जीवात्मा के अतिरिक्त तीसरी सत्ता जड़ सत्ता है जिसे प्रकृति कहते हैं। यह प्रकृति अपनी कारण अवस्था में सूक्ष्म सत, रज व तम गुणों की साम्यावस्था होती है। इसी में सर्वातिसूक्ष्म सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी ईश्वर जीवों को उनके पूर्व कल्प के पाप व पुण्य कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देने के लिये कारण व मूल प्रकृति में विकार करके इस भौतिक जगत वा सृष्टि को उत्पन्न करते हैं।
इस सृष्टि को देखकर व उसकी महत्ता पर विचार कर इसके रचयिता सृष्टिकर्ता के अनेक गुणों का ज्ञान हो जाता है। ईश्वर ने सृष्टि की आदि में वेदज्ञान दिया है। यह ज्ञान चार वेदों के रूप में है जिसे ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। इस ज्ञान में ईश्वर व जीवात्मा सहित प्रकृति के स्वरूप का चित्रण भी हुआ है। ऋषियों ने वेदों का अध्ययन व उपासना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर ईश्वर के स्वरूप आदि का विस्तार उपनिषदों, दर्शन एवं अन्य ग्रन्थों में किया है। वेद, दर्शन, उपनिषद सहित ऋषियों के अन्य ग्रन्थों का अध्ययन करने पर ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान होता है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के नियमों सहित स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश एवं आर्योद्देश्यरत्नमाला में ईश्वर के सत्यस्वरूप एवं गुण-कर्म-स्वभाव का वर्णन किया है। हम पाठकों की जानकारी के लिये यहां आर्यसमाज के दूसरे नियम में ऋषि दयानन्द द्वारा ईश्वर के वेद-वर्णित स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव को प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं ‘‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी (ईश्वर) की उपासना करनी योग्य है।” इस नियम में ईश्वर के अनेक प्रमुख गुण आ गये हैं। ईश्वर के यह सभी गुण सृष्टि में प्रत्यक्ष हो रहे हैं अतः यह ईश्वर का प्रामाणिक स्वरूप स्वीकार किया जा सकता है। ऋषि द्वारा अन्यत्र वर्णित है कि ईश्वर सर्वज्ञ है, वह सृष्टि में विद्यमान अनन्त वा अगण्य संख्या वाले चेतन अल्पज्ञ जीवों को उनके कर्मानुसार जन्म, मरण, सुख, दुख व मोक्ष आदि प्रदान करता है। ईश्वर वेदज्ञान का देने वाला है और इस दृश्य जगत का कर्ता, धर्ता एवं हर्ता भी है। इस प्रकार हमें ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान हो जाता है। ईश्वर के इसी स्वरूप का ध्यान करने से उपासक को ईश्वर के गुणों का साक्षात्कार होकर ईश्वर का साक्षात्कार भी हो जाता है। ईश्वर का गहन ज्ञान प्राप्त करने के लिये वेदों सहित ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय जिसमें ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं, नियमित रूप से पढ़ना व उन्हें समझना आवश्यक है। इस अध्ययन व इनके चिन्तन व मनन सहित ईश्वर का ध्यान करने से आत्मा दुर्गुणों से रहित व सद्गुणों से पूरित होता है। यही उपासना का उद्देश्य एवं लाभ है जो अन्य किसी प्रकार से नहीं होता।
ऋषि दयानन्द ने एक महत्वपूर्ण बात यह भी कही है कि रचना विशेष को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। हम प्रतिदिन इस सृष्टि के सूर्य व चन्द्र ग्रह व उपग्रहों सहित ब्रह्माण्ड के नक्षत्रों, समुद्र, नदियों, वृक्षों, पृथिवी, अग्नि, वायु आदि को देखते हैं। मानव एवं पशु शरीरों को भी देखते हैं। इससे इनके रचयिता परमेश्वर का ज्ञान हो जाता है। प्रकृति में किसी बाग बगीचे में नाना प्रकार के रंग बिरंगे भिन्न भिन्न सुगन्धों को देनेवाले एक से एक सुन्दर फूल को देखकर भी इनके रचयिता परमेश्वर का ज्ञान विवेकी एवं शुद्ध बुद्धि के विचारशील मनुष्यों को होता है। ईश्वर को जानने के लिये हम इस उदाहरण से भी लाभ ले सकते हैं जिसमें ऋषि दयानन्द ने बताया है कि जब मनुष्य किसी के हित व लाभ की बात सोचता है व परोपकार आदि कार्यों को करता है तो उसके मन व आत्मा में सुख, उत्साह व आनन्द आदि की अनुभूति व अहसास होता है और जब वह किसी के अहित, चोरी व अन्याय करने का विचार करता है तो उसके मन में भय शंका व लज्जा उत्पन्न होती है। विचार करने पर इसका यही उत्तर मिलता है कि हमारी आत्मा व मन में सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमात्मा हमें अच्छे कार्यों की प्रेरणा व बुरे कामों को न करने के लिये संकेत करता है। जो ईश्वर की प्रेरणा को मान लेते हैं वह पापों व दुःखों से बच जाते हैं। जो अज्ञान, प्रलोभनों, काम व क्रोध आदि के वशीभूत होकर अनुचित काम करते हैं वह ईश्वर की व्यवस्था से भविष्य में कष्ट व दुःख पाते हैं।
ईश्वर के सत्यस्वरूप का वर्णन वेद, उपनिषद, दर्शन व मनुस्मृति आदि में हुआ है। सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित पंचमहायज्ञ विधि और संस्कारविधि में भी हुआ है। इन्हें पढ़ने से भी हमें ईश्वर का ज्ञान व ईश्वर का अनुभव व अनुभूति होती है। ऋषि दयानन्द ने यज्ञ व संस्कारों में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के 8 मंत्रों का विधान किया है। आर्यसमाज के सभी अनुयायी इन मंत्रों का प्रतिदिन यथा सुविधा अथवा यज्ञ के समय पाठ करते हैं। आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान डॉ. वागीश शास्त्री इन मन्त्रों को ईश्वर में ध्यान लगाने में बहुत उत्तम व लाभकारी मानते हैं। ऐसा उन्होंने देहरादून में अपने एक प्रवचन में कहा था। हमारा भी ऐसा ही अनुमान व अनुभव है। हम मन्त्रों का उल्लेख न कर इनके हिन्दी अर्थ पाठकों के लिये प्रस्तुत करते हैं जिससे सभी को लाभ होगा। इन मन्त्रों का पाठ शुभ व श्रेष्ठ कर्म है जिससे मन को शान्ति मिलती है। ईश्वर का सहाय भी हमें मिलता है। मन्त्रों के अर्थ हैं- हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।1। ईश्वर स्वप्रकाशस्वरूप है और उसने प्रकाश करनेहारे सूर्य, चन्द्रादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। वह उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतनस्वरूप था, वह सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्त्तमान था, वही इस भूमि और सूर्यादि को धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अति प्रेम से विशेष भक्ति किया करें।2।
ईश्वर आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा है, उसकी सब विद्वान् लोग उपासना करते हैं और उसका प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय, अर्थात् शिक्षा को मानते हैं। उसका आश्रय ही मोक्ष-सुखदायक है, उसका न मानना, अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ज्ञान के देनेहारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति, अर्थात् उसी की आज्ञापालन करने में तत्पर रहें।3। ईश्वर प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है, वह इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है। हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ऐश्वर्य को देनेहारे परमात्मा के लिए अपनी सकल उत्तम सामग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके विशेष भक्ति करें।4। सृष्टिकर्ता परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाववाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, उस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया और उसी ईश्वर ने दुःखरहित मोक्ष को धारण किया है। वह ईश्वर आकाश में सब लोक-लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त, अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोगों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामर्थ्य से विशेष भक्ति करें।6। हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मन्! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन, इन सब उत्पन्न हुए जड़-चेतनादिकों का नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामनावाले होके हम लोग भक्ति करें, आपका आश्रय लेवें और वान्छा करें, उस-उसकी कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।7। हे मनुष्यों! वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम-स्थान-जन्मों को जानता है और जिस सांसारिक सुख-दुःख से रहित नित्यानन्दयुक्त मोक्ष्द्वास्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होके विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा अपना गुरु, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।8।
इन संक्षिप्त विचारों को पढ़कर ईश्वर के स्वरूप, गुण, कर्म एवं स्वभाव विषयक ज्ञान से अपारिचित व्यक्ति को अत्यन्त लाभ हो सकता है। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़कर किसी भी पाठक के ज्ञान का स्तर बहुत बढ़ जाता है। वह योग का अभ्यास करके सफल योगी भी बन सकता है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के उपकारों के लिये प्रातः व सायं एक घंटा उपासना वा सन्ध्या करने का निर्देश दिया है। ऐसा करने से मनुष्य देवत्व को प्राप्त होकर सुखी व आनन्द से युक्त हो सकता है। ईश्वर की कृपा से उसके अनेक काम व इच्छायें भी पूर्ण हो सकती है। यदि हम पुरुषार्थ करते हुए ईश्वर से सहायता प्राप्त करने के लिये उसकी उपासना करते हैं तो लाभ अवश्य होता है। हमें हर परिस्थिति में ईश्वर की उपासना अवश्य करनी चाहिये। इससे हमारा यह जीवन भी सुधरेगा और परजन्म में भी श्रेष्ठ योनि मिलने सहित सुखों का लाभ होगा। ईश्वर के स्वरूप व उसके कुछ गुण, कर्म व स्वभावों की हमने इस लेख में चर्चा की है। हम आशा करते हैं कि इससे सभी पाठकों को ईश्वर के विषय का सत्य व यथार्थ ज्ञान होगा। आओ! ईश्वर के अनन्त उपकारों का विचार कर हम प्रतिदिन प्रातः व सायंकाल सन्ध्या करने का व्रत लें और आविद्या से दूर होकर सुखी जीवन प्राप्त करें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य