उपन्यास अंश

ममता की परीक्षा ( भाग -31 )

 

साधना की खामोशी मास्टर रामकिशुन के सीने पर पल पल दबाव बढ़ाते जा रही थी । दिल के धड़कनों की गति के साथ ही रामकिशुन के चेहरे के भाव भी पल पल बदल रहे थे । और साधना उनके मनोभावों से अनभिज्ञ नजरें चुराते हुए कुछ कहने के लिए सही शब्दों का चयन कर रही थी । उसकी स्थिति ‘ एक तरफ कुआँ और एक तरफ खाई ‘ जैसी हो गई थी । फिर भी उसे कुछ कहना तो था ही । खामोश कब तक रहती ? आखिर दिल कड़ा करके उसने कहना शुरू किया ,” बाबूजी ! आप ही मेरी माताजी हो और आप ही मेरे प्यारे बाबूजी भी ! आप ही मेरे गुरु भी हो । आपने एक माँ की तरह जहाँ मुझे ऊँचे व आदर्श संस्कार दिए हैं वहीँ गुरु बनकर हमेशा सच्चाई की राह पर चलने की शिक्षा भी दी है । एक पिता की तरह समाज की दुश्वारियों से लड़ने में आपने मुझे सहारा दिया है और मुझे हर मुसीबत से महफूज रखा है । मैंने भी हमेशा आपके दिए आदर्श व उसूलों पर चलने का प्रयास किया है । आज आपके दिए वही आदर्श और वही उसूल मुझे प्रेरित कर रहे हैं कि मैं आपको इस बारे में किसी भ्रम में न रखूँ । मैं यह सब जो अभी बताने जा रही हूँ आपसे कल ही बतानेवाली थी लेकिन सही अवसर न मिल सका ! वह लड़का जिसका नाम गोपाल अग्रवाल है , अग्रवाल इंडस्ट्रीज के मालिक शेठ शोभालाल अग्रवाल की इकलौती संतान है । वह भी मेरे ही साथ मेरे ही कॉलेज में पढता …..!” कि तभी उसकी बात अधूरी रह गई । हाथ में पकड़ी छोटी सी बांस की अनगढ़ लाठी ज़मीन पर खट खट पटकती हुई पड़ोस की परबतिया चाची नजदीक आ चुकी थी । आते ही साधना को देखकर अचरज जाहिर करते हुए बोली ,” अरे साधना ! तू कब आई शहर से ? हो गई पढ़ाई पूरी तेरी ? अभी तेरी आवाज सुनकर मुझे पता चला । नहीं तो महारानी जी खुद तो बताती नहीं ” परबतिया चाची ने लगे हाथ उलाहना देने का मौका भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा । परबतिया को देखकर रामकिशुन घर के अंदर चले गए । उनकी बात अधूरी रह गई थी ।
साधना ने आगे बढ़कर परबतिया के पाँव छुए और फिर उन्हें सामने बिछी खटिये पर बैठाते हुए बोली ,” चाची ! मैं तो रात ही आ गई थी । देर हो गई थी इसलिये आपके घर नहीं आई । सोचा सुबह मिल लेंगे । रात बाबूजी से भी कोई बात नहीं हो पाई थी । इसलिए अभी बात शुरू ही की थी कि आप आ गईं । कॉलेज की पढ़ाई मेरी पूरी हो गई है । लेकिन पढ़ाई का कोई अंत थोड़े न है । परीक्षा देकर आई हूँ । अब जब नतीजे आएंगे तब सोचूँगी कि आगे क्या करना है । ”
” ओह ! लगता है मैं गलत समय पर आ गई साधना ! तू बात कर ले अपने बाबूजी से ! बस ईतना बता दे , वहाँ शहर में कोई तकलीफ तो नहीं हुई ? ” परबतिया के चेहरे पर जिज्ञासा के भाव थे । साथ ही वह उठकर खड़ी भी हो गई थी ।
उसकी बात सुनकर साधना की मुस्कान गहरी हो गई । उसके भोलेपन पर मन ही मन वह हंसे जा रही थी । एक तरफ तो वह जाने के लिए भी कह रही थी और दूसरी तरफ उसका हाल भी जानना चाह रही थी । बोली ,” कोई बात नहीं चाची ! आप आराम से बैठिये ! मैं पानी ले आती हूँ । बाबूजी से तो बात होते ही रहेगी । वैसे भी अब उनका स्कूल का समय हो गया है । अब स्कूल से वापस आएंगे तब बात हो जायेगी । ”
” अरे तू बैठ बेटी ! मैं क्या ईतनी दूर से आई हूँ ? बैठ तू भी और बता कैसा रहा शहर का तेरा अनुभव ! ” परबतिया ने उसे फिर से कुरेदा ।
” चाची ! शहर में इंसान की जिंदगी यहाँ से बिलकुल अलग है । वो तो भला हो चौधरी काका का जिनके जान पहचान की वजह से मुझे शहर के ही एक महिला छात्रावास में रहने की जगह मिल गई । रहने और खाने की सब समस्या हल हो गई थी । बस एक ही समस्या थी रोज कॉलेज जाने की । ” कहने के बाद साधना कुछ पल साँस लेने के लिए रुकी ही थी कि परबतिया ने बात आगे बढ़ाई ,” इसमें क्या समस्या है बेटी ! पढ़ने के लिए कॉलेज तो जाना ही था न ! आखिर तुम शहर गई भी तो कॉलेज पढ़ने के नाम पर ही थी न ? ”
” चाची ! आप समझीं नहीं ! कॉलेज जाने के नाम पर मुझे कोई समस्या नहीं थी ! पढ़ने का शौक तो मुझे बचपन से ही रहा है और पढ़ने के लिए ही तो गई थी मैं वहाँ ! समस्या तो वह दुरी थी जो कॉलेज और छात्रावास के बीच में था । कॉलेज लगभग 5 किलोमीटर दूर था उस छात्रावास से जहाँ मैं रहती थी । समझ रही हो न पांच किलोमीटर मतलब ? अपने इहाँ लगभग डेढ़ कोस ! ” अभी साधना की बात ख़त्म भी नहीं हुई थी कि परबतिया फिर से बीच में ही टपक पड़ी ,” बस डेढ़ कोस ? ये कहाँ इतना दूर है बिटिया कि तू परेशान हो गई और तुझे समस्या लगने लगी ! यहाँ डेढ़ कोस तो तेरे काका आज भी रात बिरात आसपास के गाँव में पैदल ही चले जाते हैं नाच देखने ! तू तो जानती है ना कि वो नाच देखने के कितने शौक़ीन हैं । अगर किसी बारात में नाच वाले आये हैं तब तो मुझे और जल्दी भोजन बनाना पड़ता है इनके लिए ! ” कहते हुए परबतिया के चेहरे पर गर्व के भाव दिख रहे थे ।
” चाची ! अजीब बात है ! काका बुढ़ापे में ईतनी दूर अँधेरे में नाच देखने जाते हैं और आप हैं कि उन्हें समझाने की बजाय आप और खुश हो रही हैं ! अँधेरे में कहीं गिर गिरा गए तो एक मुसीबत खड़ी हो जायेगी । ” साधना ने उन्हें समझाना चाहा था ।
नागवारी के भाव आ गए थे परबतिया के चेहरे पर ” अरे नाच देखने जाना मर्दों की शान है । चल छोड़ जाने दे ये बात तुम जैसे नए लडके लड़कियां क्या समझेंगी ! तू तो बस अपनी सुना ! ”
साधना जानती थीं कि अगर उनसे इस विषय में और बात की तो तुरंत मुँह फुला लेंगी और फिर कई दिन तक बातचीत बंद ! ऐसा अनुभव उसे कई बार हो चुका था जब परबतिया उससे किसी बात पर नाराज हो जाती और फिर कुछ दिनों तक उसके घर आना जाना और बातचीत बंद । लेकिन वह दिल की बहुत ही नेक थी । उसे कोई भी परेशानी हो तो सब कुछ भूला कर उसकी तीमारदारी में लग जाती और फिर चल पड़ता उनके बातचीत का सिलसिला ! अभी पिछली बार की ही बात है जब दो ही दिन पहले परबतिया उसकी किसी बात से नाराज हो गई थी और बातचीत बंद । वह तेज ज्वर से कराह रही थी । उसके बाबूजी गाँव के वैद्य के पास दवाई लेने गए हुए थे । उसी समय परबतिया उसके पास आई थी । उसे छूते ही तेज ज्वर का अनुमान लगाकर तड़प उठी थी । माथे पर ठन्डे पानी का पट्टी रखकर वह तुरंत ही अपने घर से एक काढा ले आई थी । बेहद कड़वा वह काढा जो शायद चिरैता का रस था पीते ही उसे कुछ देर में आराम मिल गया था लेकिन वह तब भी उसके पास ही बैठी रही थी ।
साधना ने आगे कहना शुरू किया ,” चाची ! समस्या इसलिए थी क्यों कि छात्रावास में नाश्ता खाना सब तय समय पर मिलता है । नाश्ता करके बाहर सड़क पर निकलो तो ईतना समय नहीं बचता था कि पैदल निकलकर समय पर कॉलेज पहुँचा जा सके । छात्रावास के सामने से ही बस मिलती थी लेकिन ईतनी भीड़ रहती थी कि कुछ न पूछो ! पता नहीं लोग शहर में कैसे रह लेते हैं । वहाँ तो जैसे किसी के पास साँस लेने के लिए भी फुर्सत नहीं है । इंसान का हर एक पल पहले से निर्धारित होता है मसलन उसे कब उठना है , फारिग होना है नहाना है कौन सी बस पकड़नी है , दफ्तर पहुँचना है और फिर उसी तरह सही समय पर घर वापस पहुँचना । सब कुछ मशीनी अंदाज में । ऐसा लगता है कि इंसान ने खुद को मशीन बना लिया है । मुझे तो नहीं पसंद आई शहर की जिंदगी ! इसीलिये तो जैसे ही पेपर ख़त्म हुआ तुरंत ही रात की बस पकड़ ली । ” कहकर साधना खामोश हुई ही थी कि तभी गोपाल सामने से आता हुआ दिखा । उसके एक हाथ में लोटा देखकर साधना के मुख पर बरबस ही मुस्कान की गहरी रेखा खींच गई । परबतिया की नजर भी गोपाल पर पड़ चुकी थी । खटिये पर से उठते हुए परबतिया बोली ,” ये कौन बाबू हैं ? शहरी लग रहे हैं ? तेरे साथ आये हैं क्या ? ”
” हाँ चाची ! ये गोपाल बाबू हैं और वहीँ शहर में ही रहते हैं । ग्रामीण जीवन को नजदीक से देखना चाहते थे इसलिए मेरे साथ आये हैं । ” साधना ने थोड़े झूठ का सहारा लिया था ।
तभी घर के अंदर से मास्टर रामकिशुन तैयार होकर बाहर निकले । बरामदे में रखी अपनी साइकिल बाहर निकालकर उस पर सवार होते हुए बोले ,” परबतिया भाभी ! मैं स्कूल जा रहा हूँ । बच्चे अकेले हैं जरा ध्यान रखना ! ” और फिर साधना की तरफ देखकर उसे अपना ध्यान रखने की नसीहत देकर मास्टर रामकिशुन ने पैडल मारकर साइकिल आगे बढ़ा दी !

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।