लघुकथा : बिछड़े प्रेम का रक्त रंजित गुलाब…
आफिस को यूँ ही खुला छोड़, बागबानी से एक सुर्ख लाल गुलाब तोड़, गाड़ी को स्पीड से दौड़ा कर स्टेशन की तरफ बढ़ गया… क्योंकि उसका प्रेम बहुत सालों बाद उसके शहर आया था, जो अब वापस जा रहा है!
“ओये बड़ी निर्दयी है तू तो बता नहीं सकती थी कि आई हुई हूँ ”
“तो” उसने बड़ी बेरूखी से जवाब दिया!
“तो क्या… तेरा मन नहीं होता न मुझसे मिलने का? ….पत्थर दिल है तू पिघलती ही नहीं ”
“पत्थर पिघलते नहीं घिसते हैं”
“देख तू इस तरह से मार मत मुझे ….वरना मैं सब खत्म कर लूँगा….
“तेरे इतने बड़े शहर में सौन्दर्य की कमी है क्या? ढूँढ ले कोई दूसरी ”
“ढूँढ लेता अगर तेरे जैसी दूसरी होती, कहाँ से लाऊँ इन अँखियो जैसी मासूमियत, ये साँवली सी भोली सूरत ….अब तो यहीं ठहरना है”
“तुम ठहरो मेरी गाड़ी आ गई …मैं चली ” उसने बैग उठाया और जाने को मुडी।
“सुन जालिम…कमसे कम ये गुलाब तो स्वीकार कर ले मेरा ” और कहकर घुटने के बल बैठ गया वह ।
पूरा हाथ खून से लाल था क्योंकि … बहुत देर से काँटो वाला हिस्सा हाथ में जोर से भींचे था…. गुलाब लिये मुस्करा रहा था वो ..काँटो के दर्द से बेखबर लेकिन गुलाब के नाम पर केवल एक पंखुड़ी बची थी।
रक्तरंजित हाथों को अपने अंजूमन में भरकर वह रो पड़ी … काँटो की टहनी उठा माथे से लगा गाड़ी में चढ़ गई! फिर अधूरी मुलाकात के साथ प्रेम बिछड़ रहा था इस उम्मीद से कि कभी तो पूर्ण होगी ।
#रजनी चतुर्वेदी
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