कविता – एक जहर
एक बात पुरानी है एक घटिया सोच पुरानी है,
दिल तो रोया कब का था आंखों में फिर आज मेरे पानी है,
समझ न पाया मैं आज तक जाने कैसे रीति-रिवाज के नाम पर यह मनमानी है,
बात करूं मैं उसी सोच की शिकार जिसकी आज भी दादी और नानी है,
कहती हैं वो बहन को अपवित्र है वो तीन दिनों तक पीना नहीं कोई छुआ उसका जो पानी है,
अरे बोलो पाप किया क्या उसने क्यों ये तुम्हारी आनाकानी है ,
दिखाओ ना मुझे उस पन्ने को जिसमें किसी मूरख ने लिखी ये मनगढ़ंत कहानी है,
शायद थे अनपढ़ गवार पूर्वज सारे और यह उसी की एक निशानी है,
रोती है वह चुप के साथ ना होता जब कोई उसके क्या समाज ये अज्ञानी है,
कोई गलती है ना उसकी ना ही वो अपवित्र कोई बस स्त्री के शरीर से
निकला हुआ गंदा वो पानी है,
गुनाह नहीं है वह कोई बस है शारीरिक क्रियाकलाप और विज्ञान ने भी बात ये मानी है,
बेचूंगा अंधों के शहर में आइना मैंने भी अब ये ठानी है,
मिट जाऊंगा खुद या मिटा दूंगा उन सबको जो यह मनगढ़ंत कहानी है,
मैं ना मानू ऐसे किसी रीति रिवाज को चलती जहा कुछ मूरख बुजुर्गों की मनमानी है,
दुनिया पहुंच रही चांद पे यहा कुछ मूर्ख काट पंख बहन के कहते खुद को ज्ञानी है,
थूंकता हूं मुंह पर मैं उनके रची जिन्होंने यह घटिया कहानी है,
बस और नहीं अब तुम्हें रुकना होगा बहन उड़ेगी तुम्हे झुकना होगा
क्योंकि लिखनी उसको भी एक नई कहानी है ,
बहन है आज मेरी वो पर कल किसी की होने वाली दादी और नानी है,
— सितांशु त्रिपाठी