कविता
नीरजा के सलिल तट पर, गा रहा पंछी अकेला!
नहीं कोई दुःख जहाँ पर,नहीं है कोई झमेला ।
दूर तक दो पाट चौडे,सिक्त की चादर बिछाये;
सो रहे आश्वस्त मन से, स्वर्ग अपने में छिपाये;
उग रहा चन्दा किनारे, ढल रही है सान्ध्य बेला!
पक्षियों का मधुर कलरव, हो रहा आकाश में है;
ह्रदय को प्रिय लग रही, जो शान्ति चन्द्र -प्रकाश में है ;
ह्रदय खोता जा रहा है, देख पावन प्रकृति मेला!
सोंचती हूँ आज मन में, प्रकृति की यह देख लीला;
ईश ने क्यों निर्दयी बन, बना दी जगती न शीला;
आ गया पहले न था,क्यों व्यर्थ ही जग कष्ट झेला ।
नीरजा के सलिल तट पर, गा रहा पंछी अकेला ।
शशी तिवारी ❤