आर्यसमाज के सम्पर्क से पं. पद्मसिंह शर्मा संस्कृत के विद्वान, आचार्य एवं अनेक पत्रों के सम्पादक बने
ओ३म्
पं. पद्मसिंह शर्मा आर्यसमाज के प्रतिष्ठित विद्वान, सुप्रसिद्ध लेखक, समालोचक, अनेक पत्रों के सम्पादक, संस्कृत के आचार्य एवं कई हिन्दी सम्मेलनों के सभापतित्व करने वाले सम्मानीय विद्वान थे। बिजनौर जिले के ‘नायक नगला’ ग्राम में आपका जन्म सन् 1877 अर्थात् फाल्गुन शुक्ला 12 सम्वत् 1933 विक्रमी को हुआ था। आपके पिता का नाम चौधरी उमरावसिंह था। वह गांव के मुखिया और एक सम्पन्न किसान थे। बाल्यकाल में आपका अध्ययन घर पर रहकर ही हुआ। आपके पिता ने आपको शिक्षित करने के लिये घर पर एक मौलवी और एक पण्डित जी को नियुक्त कर दिया था। इन्होंने आपको संस्कृत, हिन्दी और उर्दू भाषा का ज्ञान कराया। इनसे शिक्षा प्राप्त कर आप इटावा गये जहां महर्षि दयानन्द के शिष्य पंडित भीमसेन शर्मा निवास करते थे। आपने इनसे अष्टाध्यायी का अध्ययन किया। आपने पं. जीवाराम शर्मा जी से भी कुछ समय तक लघुकौमुदी आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया। इसके बाद आपने लाहौर जाकर ओरियण्टल कालेज में अध्ययन किया। लाहौर में ही आपका परिचय आर्य विद्वान पं. नरदेव शास्त्री जी से हुआ। लाहौर में आपने दो वर्षों तक अध्ययन किया और इसके बाद आप जालन्धर आ गये। यहां आपने प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् पं. गंगादत्त शास्त्री से व्याकरण का विशेष अध्ययन किया। जालन्धर से आप काशी आये और यहां आपने दर्शनों के प्रसिद्ध विद्वान काशीनाथ शास्त्री से दर्शन सहित अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन किया।
आर्यसमाज के प्रमुख विद्वान और सुप्रसिद्ध ऋषिभक्त महात्मा मुंशीराम जी को उच्च कोटि के विद्वानों व आचार्यों को गुरुकुल में अध्ययन कराने का अवसर देकर प्रसन्नता होती थी। आपकी शर्मा जी पर दृष्टि गई और उन्हें गुरुकुल में शिक्षक के रूप में ब्रह्मचारियों को अध्ययन कराने के लिये सन् 1904 में अपने पास बुला लिया। इन्हीं दिनों महात्मा मुंशीराम जी ने हरिद्वार से ‘‘सत्यवादी” नामक साप्ताहिक पत्र निकालना आरम्भ किया। आपने इसके सम्पादन का भार जिन दो विद्वानों को सौंपा वह पं. रुद्रदत्त शर्मा तथा पं. पद्मसिंह शर्मा थे। पं. पद्मसिंह शर्मा जी का पत्रकारिता के क्षेत्र में यह प्रथम आगमन था। यहां से आप अजमेर गये जहां आपने परोपकारिणी सभा के मुख पत्र ‘‘परोपकारी” मासिक का सम्पादन किया। इसके साथ आपने एक अन्य पत्र ‘‘अनाथरक्षक” का भी अजमेर से सम्पादन एवं प्रकाशन किया।
सन् 1909 से सन् 1919 के दस वर्षों में शर्मा जी स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती जी द्वारा संस्थापित ‘‘गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर” से जुड़े रहे और यहां रहकर आपने इस गुरुकुल के मासिक पत्र ‘‘भारतोदय” का सम्पादन किया। सन् 1918 में आपने काशी के हिन्दी-प्रेमी रईस बाबू शिवप्रसाद गुप्त के आग्रह पर ज्ञानमण्डल काशी द्वारा प्रकाशित होने वाले हिन्दी ग्रन्थों का सम्पादन किया। ‘‘बिहारी सतसई की भूमिका” पं. पद्मसिंह शर्मा जी की प्रसिद्ध पुस्तक है। इसका प्रकाशन भी सन् 1918 में ज्ञानमण्डल काशी से ही हुआ।
पं. पद्मसिंह शर्मा जी सन् 1920 में संयुक्त प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बनाये गये। आपने इस संस्था के मुरादाबाद सम्मेलन का सभापतित्व किया। आपने ‘‘बिहारी सतसई” पर संजीवन भाष्य नाम से ग्रन्थ रचना की थी। आपकी यह रचना सन् 1922 में सम्मानित की गई। आपको इसके लिये मंगला-प्रसाद पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन् 1928 में भी शर्मा जी मुजफ्फरपुर में आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के सभापति बने। आपने सन् 1932 में हिन्दुस्तानी एकेडमी प्रयाग के तत्वावधान में ‘‘हिन्दी, उर्दू, हिन्दुस्तानी” विषय पर एक विद्वतापूर्ण भाषण दिया जो एकेडमी द्वारा ही पुस्तकरूप में प्रकाशित किया गया। यह पुस्तक 160 पृष्ठों की थी। इसकी जानकारी इण्टरनेट पर उपलब्ध है।
पं. पद्मसिंह शर्मा जी ने पं. हृषीकेश भट्टाचार्य लिखित संस्कृत निबन्धों का एक संकलन सम्पादित कर छपाया जो ‘प्रबन्ध–मंजरी’ के नाम से पाठको को प्राप्त हुआ। आपके अपने संस्मरणों तथा समीक्षात्कमक लेखों का एक संग्रह ‘‘पद्म–पराग” नाम से प्रकाशित हुआ था। इस ग्रन्थ में पंडित जी ने स्वामी दयानन्द, पं. भीमसेन शर्मा आगरा, पं. गणपति शर्मा आदि आर्यसमाज के दिग्गज विद्वानों के रोचक संस्मरण प्रस्तुत किये थे। पंडित जी के पत्रों का एक संस्करण ‘पद्मसिंह शर्मा के पत्र’ नाम से पं. हरिशंकर शर्मा द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ था।
गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती एवं पं. गणपति शर्मा जी के मध्य वृक्षों में जीव है या नहीं, इस विषय पर एक शास्त्रार्थ हुआ था। इस शास्त्रार्थ का विस्तृत विवरण पं. पद्मसिंह शर्मा के सम्पादन में भारतोदय पत्र में प्रकाशित हुआ था। कुछ वर्ष बाद स्वामी दर्शनानन्द जी तथा पं. गणपति शर्मा पर साप्ताहिक पत्रिका ‘आर्य सन्देश’ के किसी एक विशेषांक में इस शास्त्रार्थ का पूर्ण विवरण प्रकाशित हुआ था। यदि पंडित जी को लम्बी आयु प्राप्त हुई होती तो आप बहुत कार्य करते। 55 वर्ष की अल्पायु में 7 अप्रैल, सन् 1932 को आपका देहावसान हो गया। यह आर्यसमाज की बहुत बड़ी क्षति थी। पंडित जी ने जिन ग्रन्थों का लेखन, सम्पादन व प्रकाशन किया वह सभी इस समय अनुपलब्ध हैं। हम पंडित जी के ग्रन्थ ‘पद्म–पराग’ के शीघ्र प्रकाशन की आवश्यकता अनुभव करते हैं। इसके प्रकाशन से वर्तमान व भविष्य के आर्य बन्धुओं को अनेक तथ्यों का ज्ञान होगा। इस दृष्टि से इस ग्रन्थ की रक्षा की जानी चाहिये।
हमें विलासपुर, रामपुर, उत्तरप्रदेश के हमारे फेसबुक मित्र श्री विजयेन्द्र वर्मा जी ने सूचित किया है कि ‘पद्म–पराग’ और ‘हिन्दी, उर्दू, हिन्दुस्तानी’ पुस्तकें उनके पास हैं। हमने उनसे इन पुस्तकों की छाया-प्रतियां उपलब्ध कराने की विनती की है। यदि यह पुस्तकें हमें प्राप्त हो जाती हैं तो हम इनकी पीडीएफ बनवाकर उन्हें इच्छुक सभी मित्रों को भेजने का प्रयत्न करेंगे। यदि कोई आर्य प्रकाशक ‘पद्म–पराग’ पुस्तक का प्रकाशन करते हैं तो हमें प्रसन्नता होगी। हम प्रयत्नशील है। यदि हमें यह पुस्तकें प्राप्त हो जाती हैं तो इससे बहुतों को लाभ हो सकता है। इस लेख को तैयार करने में हमने आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान कीर्तिशेष डॉ. भवानी लाल भारतीय जी के ग्रन्थ ‘‘आर्य लेखक कोष” से सहायता ली है। हम उनके प्रति आभार एवं धन्यवाद का भाव व्यक्त करते हैं। ओ३म् शम्। हम अपने फेस बुक मित्र श्री रमेश चन्द्र बावा जी का धन्यवाद करते हैं जिन्होंने हमें पं. पद्मसिंह शर्मा जी का चित्र प्रेषित किया है अन्यथा हम इस चित्र को प्रस्तुत न कर पाते।
–मनमोहन कुमार आर्य