सिख गुरुओं की शहादत (भाग-१)
कट्टरपंथियों द्वारा क्रूर हत्याएं कोई नई बात नहीं है । इतिहास के पन्नो से मैंने कट्टरपंथियों द्वारा सिख गुरुओं के साथ किये गए अत्याचार और उनकी शहादत के किस्से ढून्ढ निकाले हैं ।
मुग़ल सम्राट बाबर के समय गुरु नानक जी के पश्चात, गुरु परंपरा में चौथे उत्तराधिकारी गुरु राम दास जी थे । उनके सबसे छोटे पुत्र अर्जन देव बचपन से प्रभु की भक्ति में खोये रहते थे, इस कारण से उनके पिता गुरु राम दास जी ने बड़े पुत्र पृथ्वीचंद को गुरु गद्दी के अयोग्य मानते हुए गुरु गद्दी पर अर्जन देव जी को 1581 में 18 वर्ष की उम्र में बिठाया, वह ज्ञान में सामान्य से अधिक उन्नत थे ।
नए धर्म के आधार को गुरु नानक जी द्वारा परिभाषित किया गया था, और उनके तीन उत्तराधिकारियों ने उनके कार्य को आगे और बढ़ाया। गुरु अर्जन देव जी ने इसे एक ठोस मुकाम पर पहुंचाने के मिशन में लगा दिया। उन्होंने उस स्थान को पूरा करने का कार्य किया जहां उनके पिता ने अमृत की एक मिट्टी की टंकी का निर्माण किया था। उनकी ऐतिहासिक उपलब्धियों में अन्य कार्यों के अतिरिक्त हरमंदिर साहब का और अमृतसर (अमृत का सरोवर) का निर्माण, सिखों के पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहब का संकलन और हरमंदिर साहब में उसकी स्थापना, सबसे मूल्यवान उपलब्धि है। “मैं न तो हिंदू हूं, न ही मुस्लिम …” की सच्ची भावना में, गुरु अर्जन देव जी ने लाहौर के एक मुस्लिम संत मियां मीर को वर्तमान स्वर्ण मंदिर हरमंदिर साहब की नींव की आधारशिला रखने के लिए लाहौर से आमंत्रित किया । इमारत के चारों तरफ के दरवाजों ने सभी चार जातियों और हर धर्म की स्वीकृति को दर्शाया । विद्वानों के अनुरोधों को ना मानते हुए, उन्होंने हरमंदिर साहब का फर्श आसपास के क्षेत्र से नीचे रखा ; उनका मानना था, चूंकि पानी नीचे की ओर बहता है इसलिए भगवान का आशीर्वाद चाहने वाले नीचे स्थान से उसे याद करेंगें, जिससे प्रभु की कृपा उनपर बरसती रहे ।
गुरु जी के प्रभाव के कारण खत्री, जाट, राजपूत, बढ़ई, शूद्र, अरोरा, कंबोज, सैनी आदि पंजाबी जनजातियों की एक बड़ी संख्या सिख धर्म में परिवर्तित हो गई, मुख्य रूप से हिंदू धर्म से और कुछ इस्लाम से भी। गुरुजी के संदेश की पवित्रता और उनकी अत्यधिक लोकप्रियता के कारण, मुस्लिम पीर, हिंदू संत, योगी, सिख भी गुरु अर्जन देव जी के अनुयायी बन गए । पहली बार नया सिख धर्म, मध्यकालीन पंजाब का प्रमुख लोकप्रिय धर्म बन गया था।
अपने काल में गुरुजी ने कई गांवों, कस्बों और शहरों की स्थापना की थी और पंजाब क्षेत्र में कई कुओं का निर्माण किया । सिख धर्म तेजी से पंजाब के क्षेत्रों मोगा, दोआबा, मालवा, नक्का में एक लोकप्रिय और बहुसंख्यक धर्म बनता जा रहा था। शांति और समृद्धि कभी इस क्षेत्र में लौट रही थी। यद्यपि पंजाब में रहने वाले लोग इस विकास से खुश थे, लेकिन दिल्ली में मुगल नेता हैरान थे। गुरु अर्जन देव जी की लोकप्रियता में वृद्धि के कारण दिल्ली के मुगल दरबार के कट्टरपंथी मुसलमानों में ईर्ष्या और गंभीर चिंता पैदा हो गई, वो गुरु के शत्रु होने लगे।
अकबर की मृत्यु के तुरंत बाद, मुस्लिम कट्टरपंथियों ने अकबर के पुत्र सलीम के विचार बदल डाले और उन्हें सम्राट जहांगीर के रूप में सिंहासन हासिल करने में मदद की । उन्हें इस समझौते पर इस शर्त के साथ सहायता दी गई थी कि जब वह सम्राट बनेगा तो देश में शरीयत (रूढ़िवादी मुस्लिम कानून) को बहाल करेगा। अकबर का पोता, खुसरो एक धर्मपरायण व्यक्ति था अकबर ने उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था पर मुस्लिम कट्टरपंथियों ने ऐसा न होने दिया । कट्टरपंथियों के वर्चस्व ने यह जरूरी कर दिया कि उसे अपने जीवन के लिए भागना पड़े। पंजाब से गुजरते समय उसने तरनतारन में गुरु अर्जन देव जी के दर्शन किए और उनका आशीर्वाद मांगा । खुसरो को बाद में पकड़ लिया गया और सजा में अंधा कर दिया गया।
कट्टरपंथी मुसलमानों को मौका मिल गया । उन्होंने जहांगीर को गुरु जी के विरुद्ध भड़काया । इसके बाद जहाँगीर ने गुरु अर्जन देव जी को लाहौर में बुलाया। पूर्व-निर्धारित योजना के साथ, जहाँगीर ने खुसरो के आश्रय के बारे में गुरु के स्पष्टीकरण से असंतोष दिखाया। उन्होंने गुरु को विद्रोह के लिए विद्रोही करार दिया । उन्हें कहा गया यदि वह इस्लाम धर्म अपना लेते हैं तो उन्हें छोड़ दिया जाएगा । गुरु जी ने इंकार कर दिया ।
गुरु जी को लाहौर जेल में डाल दिया गया और अत्यधिक अत्याचार किया गया। पांच दिन तक उन्हें बिना खाना या पानी दिए कठोर यातनाएं दी गयी। मई-जून के सूरज की चिलचिलाती धूप में उन्हें तपे हुए तवे पर रेत डालकर बिठाया गया । सिर पर उबलता पानी डाला गया । उनके पूरे शरीर पर फफोले पड़ गए । मियां मीर ने उनसे संपर्क किया और उनकी ओर से हस्तक्षेप करने की पेशकश की । कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने सजा में अपनी विलक्षण शक्ति के साथ लाहौर के पूरे शहर को ध्वस्त करने की पेशकश की, लेकिन गुरु ने उनकी मदद से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि जो कुछ हो रहा था वह भगवान की इच्छा से हुआ था, और 30 मई, 1606 के दिन, गुरु जी ने रावी नदी की ठंडी लहरों में स्नान की इच्छा प्रगट की, जहांगीर ने सोचा की पानी में इन्हें और कष्ट होगा, परन्तु पानी में उनके जाने के बाद एक ज्योति आकाश की ओर जाती दिखाई दी, उनका शरीर किसी को नहीं मिला।
भाई गुरदास, जो गुरु अर्जन देव जी के समकालीन और गुरु ग्रंथ साहिब के अग्रणी लेखक थे, के अनुसार गुरु जी का कहना था “मनुष्य और जानवर सभी में प्रभु काम कर रहा है; उसकी उपस्थिति हर जगह है; वह एकता और स्वयं विविधता है। “संतों की संगति में मनुष्य शत्रुओं को मित्रों में बदलना सीखता है, क्योंकि वह बुराई से पूरी तरह मुक्त हो जाता है, और किसी के प्रति द्वेष नहीं रखता। मनुष्य उसे सर्वोच्च आनन्द में चारों ओर देखता है, और स्वयं को बुराई से मुक्त करता है, सभी अभिमानों को त्याग देता है।
उन्होंने भगवान के प्रेम और इच्छा को सर्वोपरि माना । इतनी गहराई से वह प्रभु की अविभक्त और अटूट भक्ति में लीन थे, कि उनकी प्रबुद्ध और उन्नत आत्मा ने सभी दुखों और दर्द पर विजय प्राप्त की और उनकी आत्मा ईश्वर प्रेम के शाश्वत आलिंगन में शांति से बैठ गई।
गुरु अर्जन देव जी का बलिदान एक आदर्श है।
सिखों के नौवें गुरु, गुरु तेग बहादुर जी की शहादत, दिल्ली के गुरूद्वारे शीश गंज और रकाब गंज का वर्णन दूसरे भाग में……
प्रिय ब्लॉगर रविंदर भाई जी, सिख गुरुओं की शहीदी का प्रथम भाग पढ़ा, बहुत नई-नई जानकारियां मिलीं. विस्तृत शोध करके ब्लॉग लिखने का ही परिणाम है, कि ब्लॉग प्रामाणिक बन गया है. बहुत सुंदर ब्लॉग के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और बधाई.
रवेंदर भाई , आप ने यह इतहास लिख कर बहुत बड़ा काम किया है . बहुत ही अच्छा लिखा है . सिहत अछि न होने के कारण अभी इतना स्ट्रेस नहीं ले सकता .फिर भी कोशिश जारी है . दोहती के जन्म दिन की आप को बहुत बहुत वधाई हो .