ग़ज़ल – मुकम्मल कोई नहीं
सब को है गुमां, मगर, मुकम्मल कोई नहीं।
सूने पडे पनघट, चहलपहल कोई नहीं।
दूर तक कोई शजर नहीं, कोई आसरा नहीं,
तपती दुपहरी में छावं दे, आँचल कोई नहीं।
गरज की नींव पे तामिर हर एक मरासिम,
न हम किसी के, हमारा भी आजकल कोई नहीं।
हर एक का दावा है, अपनी पाक मौहब्बत का,
इस पाक मौहब्बत का ताजमहल कोई नहीं।
अस्मत हुई तार-तार के हर जुबां पे ताले हैं,
गूंगे-बहरों की है बस्ती, के हलचल कोई नहीं।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”