मुकरियाँ
खरी खरी वह बातें करता ।
सच कहने में कभी न डरता ।
सदा सत्य के लिए समर्पण।
क्या सखि ,साधू ? ना सखि, दर्पण ।
हाट दिखाये , सैर कराता ।
जो चाहूँ वह मुझे दिलाता ।
साथ रहे तो रहूँ सहर्ष ।
क्या सखि, साजन ? ना सखि , पर्स ।
जब देखूं तब मन हरसाये ।
मन को भावों से भर जाये ।
चूमूँ , कभी लगाऊँ छाती ।
क्या सखि साजन ? ना सखि पाती।।
रातों में सुख से भर देता ।
दिन में नहीं कभी सुधि लेता ।
फिर भी मुझे बहुत ही प्यारा ।
क्या सखि साजन ? ना सखि तारा ।।
मुझे देखकर लाड़ लड़ाये।
मेरी बातों को दोहराये।
मन में मीठे सपने बोता।
क्या सखि साजन ? ना सखि तोता ।।
सबके सन्मुख मान बढ़ाये।
गले लिपटकर सुख पंहुचाये।
मुझ पर जैसे जादू डाला ।
क्या सखि साजन ? ना सखि माला ।
जब आये तब खुशियाँ लाता।
मुझको अपने पास बुलाता ।
लगती मधुर मिलन की बेला।
क्या सखि साजन ? ना सखि मेला।
पाकर उसे फिरूँ इतराती।
जो मन चाहे सो मैं पाती।
सहज नशा होता अलबत्ता ।
क्या सखि साजन ? ना सखि सत्ता ।
मैं झूमूँ तो वह भी झूमे।
जब चाहे गालों को चूमे।
खुश होकर नाचूँ दे ठुमका।
क्या सखि साजन ? ना सखि झुमका।
वह सुख की डुगडुगी बजाये।
तरह तरह से मन बहलाये।
होती भीड़ इकट्ठी भारी ।
क्या सखि साजन ? नहीं , मदारी।
जब आये ,रस-रंग बरसाये ।
बार बार मन को हरसाये ।
चलती रहती हँसी – ठिठोली।
क्या सखि साजन ? ना सखि, होली ।
मेरी गति पर खुश हो घूमे ।
झूमे , जब जब लहँगा झूमे ।
मन को भाये , हाय , अनाड़ी ।
क्या सखि ,साजन ? ना सखि साड़ी ।
बिना बुलाये , घर आ जाता ।
अपनी धुन में गीत सुनाता ।
नहीं जानता ढाई अक्षर ।
क्या सखि,साजन ? ना सखि , मच्छर ।
रंग-रूप पर वह बलिहारी ।
प्रेम लुटाता बारी बारी ।
रस का लोभी करता दौरा।
क्या सखि , साजन ? ना सखि , भौंरा ।
— त्रिलोक सिंह ठकुरेला