लघुकथा – पलायन
महानगर में बसा मुकेश अपनी रोजमर्रा के जीवन में इतना व्यस्त रहता कि उसे साँस लेने की फुरसत ही नहीं मिलती,कारखाने से घर, घर से कारखाने तक जैसे जिन्दगी यहीं तक सिमट कर रह गई थी। चिमनियों से फेंकते धुआँ ,गाड़ियों के शोरगुल से महानगरीय जीवन में दम घुटता पर चाह कर भी लगी लगाई नौकरी छोड़ कर कहीं नहीं जा पा रहा था।
कम आमदनी के बीच ख़्वाहिशें दबी रहती ,रह रह कर गाँव की सौंधी मिट्टी याद आती जिसे ठुकरा कर उसने इस नारकीय जिंदगी को चुना था।
कृषक पिता के लाख मना करने के बावजूद शहर की बनावटी दुनिया उसे रास आ गई थी,वैसे भी गर्म खून कहां किसी का सुनता है। उस समय तो शहर के हाई फाई जीवन-शैली उसे आकर्षित कर रहे थे, खेती करना जाहिलों का काम लगता ,पिता के कपड़ों से मिट्टी और गोबर की बू आती थी ।
शहर की चकाचौंध उसे गांव से दूर कर दिया । मुकेश कहाँ सोच पाया था कि ” गाँव में अपनी जमीन पर अपना स्वामित्व होगा ,किसी के अधीन काम नहीं करना पड़ेगा । उच्च स्तरीय जीवन नहीं होगी पर सुकुन की दो रोटी मिलेगी “।
अत्यधिक परिश्रम करने के बावजूद पत्नी बच्चों की जरूरतें पुरी ना कर पाने के कारण मुकेश अवसाद में रहने लगा, फैक्ट्री के दमघोंटू
और प्रदुषित हवा ने उसे शारीरिक रूप से बीमार करना शुरू कर दिया था ।अब उसे अपने गाँव की शुद्ध हवा याद आती, पिता की बातों को याद कर दिल ही दिल में रोता।
अंततः ह्रदय कठोर कर नौकरी छोड़ पिता का हाथ बंटाने और शाँति से ज़िन्दगी बिताने के लिए उसने गाँव वापस लौटना मुनासिब समझा ।
जिस गाँव को छोड़ गया था,उसके बारे सोच सारे रास्ते खुश होता आया लेकिन यहाँ तो स्थिति बदली हुई थी, हरे भरे खेतों में कारखाने लगाए जा चुके थे, धुल धुसरित कच्ची पगडंडियाँ पक्की सडकों में परिवर्तित हो उन्नति की कहानी कह रही थी । गाड़ियों के शोर और चिमनियों से निकलते धुआँ उसे मुंह चिढ़ाते लग रहे थे । उन्नति ने गाँव की शुद्ध हवा को लील लिया था।
मुकेश फिर वहीं पहुंच चुका था जहाँ से उसने पलायन किया था।
— किरण बरनवाल
जमशेदपुर