कन्हैया जी अकेले बैठे हैं। घर मे सारी सुख-सुविधा है। दो बेटे, एक नई नवेली पुत्र बधू भी है। सभी नौकरीपेशा है, दिन कट जाता है जैसे-तैसे। थक-हार कर शाम भारी मन सी लगती है। कुछ दिनों पूर्व पत्नी बड़े बेटे के पास गई थी, उसे नए मकान में शिफ्ट कराने।
‘देखो, घर में जैसा भी खाना मिले खा लेना। बच्चों को कुछ मत कहना। थोड़े दिन की बात है एडजेस्ट कर लेना।’ पत्नि के बोले गए शब्द कानों में गूंजने लगे।
‘ह्म्म्म..’ भारी मन से कन्हैया लाल ने हामी भरी थी।
अब किस को क्या कहे कि कभी खाने में नमक तेज़ हो जाता है, कभी रोटी इतनी सख़्त होती है कि जबड़े से चबाना मुश्किल हो जाता है। सुबह की चाय तो छोटा बेटा दे जाता है। सब अपने अपने कार्यो में इतने व्यस्त है कि आपसी संवाद शून्य हो गया है। बस खाना बनाने, खाने तक की औपचारिकता रह गई है। घर के कोने आबाद है सिर्फ लाइव टीवी, लेपटॉप, वट्सअप, फ़ेसबुक…आभासी दुनियाँ।
‘आज घर आने में देर कैसे हो गई, सब ठीक तो है ना’
‘लो जी, आज आपकी पसन्द की सब्जी बनाई है।’
‘आपके धुले, प्रेस किये कपड़े निकाल दिए है जो आप पर खूब फबते है’
एक एक वाक्य, घटना उन्हें याद आ रही थी।
इस पल तो कन्हैया के होठों पर मुस्कान आ गई, उन्हें याद आया कि विवाह की वर्षगांठ पर घर के सारे काम काज जल्दी निपटा लिए थे।
साथ में खाना खाते वक़्त उनकी नज़र सुगंधा के हाथ पर पड़ी, ‘ अरे ये, तुम्हारी अंगुली को क्या हुआ?’
‘क.. क.. कुछ नहीं, बस रोटियां सेंक रही थी तो थोड़ा सा गर्म तवा लग गया, और कुछ रोटियां भी जल गई।’ छुपाते हुए पत्नि ने कहा।
‘ओह! कहाँ है जली हुई रोटियां? मुझे दो मैं खाऊंगा।’
‘अरे नही, रहने दो। मैं खा लूँगी, आप यह रोटियां खाइये।’
उस दिन दोनों ने मुस्कुराते हुए, मिल बांट कर प्रेम से खाना खाया था।
आँख मूंदे वह सोच ही रहे थे कि मोबाइल बज उठा।
‘हेलो..सुगंधा बोल रही हूँ।’
‘हाँ मैं…’
‘ये मैं, मैं..क्यों कर रहे है आप। मेरे जाते ही बकरी जैसे हो गए? हा हा हा… अच्छा ये बताओ कि खाना खाया या नहीं…’
‘सुगंधा…. अब आ भी जाओ तुम…बहुत हुआ विरह’ बस इतना ही कह पाए और फोन स्विच ऑफ कर दिया क्योंकि विरह-गंधा को बहुत नजदीक से महसूस कर चुके थे कन्हैया जी।