लघुकथा : जीना यहाँ-मरना यहाँ
जमुनिया भोर के अंधेरे में ही महुआ बीनने निकल पड़ी थी, जबकि सारी रात उसे तेज बुखार रहा था | मगर महुआ नहीं बीनेगी तो खायेगी क्या…? भूखो मरना पड़ेगा | घर में कोई दो पैसे कमाने वाला भी तो नहीं |
पिछले साल तक सब ठीक ठाक चल रहा था | एक दिन पति रामआसरे जंगल गये तो फिर लौटकर ही न आये | आये तो बस उनके शरीर के कुछ अवशेष, जिनसे बस पहचान ही हो सकी कि ये रामआसरे ही थे | पति का खयाल आते ही जमुनिया की आँखों से आंसुओं की धारा बह पड़ी | एक लम्बी सांस भरी और जमुनिया ने अपने कदमों की रफ्तार तेज कर दी | अगर वो देर से पहुंचेगी तो अन्य लोग महुआ बीन लेगें फिर उसे सारा दिन जंगल में भटकना पड़ेगा | तभी पीछे से झाडियों में कुछ हलचल हुई | जमुनिया के कदम एकदम से रूक गये | वो कुछ समझ पाती, इससे पहले उसके ऊपर एक भारी भरकम जानवर ने छलांग लगादी | जमुनिया चीख भी न सकी |
सूरज निकल आया था | फ़ॉरेस्ट गार्ड धनंजय व रघुवर अपनी ड्यूटी पर निकले थे | एक जगह आसमान में कुछ चील और कौए उढ़ रहे थे | दोनों को समझते देर न लगी | पास पहुंचे तो देखा एक बूढी औरत का छिन्नभिन्न जिस्म झाड़ियों में पड़ा था |
धनंजय – ‘इन आदिवासियों को कितना भी समझाओ इनकी समझ में कुछ आता ही नहीं | कल ही बस्ती में सूचना दी थी कि जंगल में आदमखोर बाघ आ गया है, सावधान रहें |’
रघुवर – ‘बेचारे क्या करें ? इस जंगल के अलावा इनके पास जीने का कोई दूसरा चारा भी तो नहीं | इनके लिए तो जीना यहाँ – मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ |’
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा