फाल्गुन प्यारा आया रे, कि खेलते होली हैं वृज की।
क्योंकि बसंत बहार है।।•••
वृज की जो होली कृष्ण ने खेली,
रास रची लीला सभी गोपी चेली।
मथुरा के वासी भी, कि प्यार से खेलते होली;
क्योंकि बसंत बहार है।।•••
देवदूत प्रह्लाद नाम है जिसका,
मारने के बहाने से जल गई होलिका।
धरम की जै हुई है, कि खेलते होली हैं तब से;
क्योंकि बसंत बहार है।।•••
स्वागत बसंत का करते हैं सारे,
चहुं ओर गन्ध ये खिले फूल प्यारे।
हरियाली छाई है, कि खेलते होली हैं वृज की;
क्योंकि बसंत बहार है।।•••
प्रेम-मिलन का ये पर्व है सबका,
मिलते हैं छोड़ के द्वेष सब मनका।
नहीं भेद धर्म का है, कि खेलते होली हैं वृज की;
क्योंकि बसंत बहार है।।•••
देवर-भाभी का प्रेम है इसमें,
रंग-गुलाल का मेल है जिसमें।
मिलते हैं प्यार से ये, कि खेलते होली हैं वृज की;
क्योंकि बसंत बहार है।।•••
पास-पड़ोस में मेल-मिलन का,
बनाते हैं गुजिया इजहार प्रेम का।
प्यार से खाते-खिलाने हैं, कि खेलते होली हैं वृज की;
क्योंकि बसंत बहार है।।•••
स्याली-जीजाजी का मौसम आया,
प्यारे बसंत का सुगंध है छाया।
रंगभरी पिचकारी से, कि खेलते होली हैं वृज की;
क्योंकि बसंत बहार है।।•••
फाल्गुन प्यारा आया रे, कि खेलते होली हैं वृज की;
क्योंकि बसंत बहार है।।
— शम्भु प्रसाद भट्ट “स्नेहिल”