जरा सोचना तन्हाई में,खामोशी क्या कहती है।
मजलूम के होंठों में दबी चुप्पी क्या कहती है।
अपने सपनों की खातिर, तुम जो छोड आये हो,
वो नदियाँ , वो गाँव की पगडण्डी क्या कहती है।
आज भी रस्ते पे है लगी लाचार बाप की नजर,
बूढी अनपढ़ मां की वो सिसकी क्या कहती है।
मजहबों की लडाई में, कितने ही घर उजडे,
किस का था गुनाह, गरजपरस्ती क्या कहती है।
कभी उस के दिल में भी तुम उतर कर देखो,
‘सागर’ उडने को पर खोले बेटी क्या कहती है।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”