जीवन चक्र
मुसाफिर चलो आज रब देखने को
मिलेगा नहीं वक्त फिर सोचने को।
अरे देख लो सब गए रंक राजा
भजो राम को पल नही खेलने को।
गया बाल पन खेलने कूदने में
युवा पन गया बीत जग जाँचने को।
सदा ही जरूरत मुझे अर्थ की थी
कभी ना निगाहें गयी जानने को।
वयो वृध्द सारे बिताए जमाने
पुरानी हुई याद आ नाचने को ।
नजारे हजारों दिखेगें नयन से
रखे नाम सारे प्रभो बेचने को।
हुआ दूर दर से कभी जो यहाँ वो
खडे है सभी खेल अब हारने को ।
— रामचन्द्र ममगाँई पंकज
Ramchandra mamgain
देवभूमि हरिद्वार