ग़ज़ल
किस तरह तेरे हवाले वो दिलो जां कर दें ।
मन की बस्ती को भला कैसे बियाबां कर दें ।।
ये शहीदों की अमानत है बचाओ इसको ।
मुल्क टुकड़ो में न ये देश के नादां कर दें ।।
तीरगी देखिए मुद्दत से यहां कायम है ।
हो सके आप मेरे घर में चरागां कर दें ।।
अब हवाओं की अदावत को समझ ले माझी ।
वो समन्दर में न पैदा कहीं तूफ़ां कर दें ।।
जात-मज़हब के ही मुद्दों पे टिकट हासिल कर ।
ऐसे नेता ही न बर्बाद गुलिस्तां कर दें ।।
इतनी तालीम पे बेचें वो पकौड़ा ही क्यूँ ।
कैसे पिजरे में कहीं कैद वो अरमां कर दें ।।
सिर्फ मतलब के लिए आये हमारी दर पर ।
हमसे उम्मीद जिन्हें जान ही कुर्बा कर दें ।।
इश्क़ इतना न बढ़ाओ के जमाने वाले ।
अब मुकर्रर मेरे घर पर ही निगहबॉ कर दें ।।
जन्नते हूर के उस ख़ाब से बचना यारो ।।
ख़्वाहिशें फिर न तुम्हें मौत का सामां कर दें ।।
ग़ज़व-ए-हिन्द पढ़ाते हैं बड़े शौक से जो ।
एक दिन तुझको न वो गैर मुसलमाँ कर दें ।।
अब ज़रूरत है मुहिम आप चलाएं साहब ।।
जिन्हें इंसां नहीं कहते उन्हें इंसां कर दें ।।
ज़ख़्म देकर वो मेरे दर्द की हालत पूछे ।
कुछ सवालात उसे फिर न पशेमाँ कर दें ।
— डॉ नवीन मणि त्रिपाठी