कविता

जीना चाहती हूँ

सुनो मैं जीना चाहती हूँ
जोर से खुल कर सांस ले
डबडबाती आंखों के उस पार
तुम्हें देखना चाहती हूँ
थाम लो अब हाथ मेंरा
कि मैं संभल नहीं पा रही
जिंदगी के बिखरे हिस्सों को
वर्तमान और भविष्य को
समेट नहीं पा रही
सुनो मैं जीना चाहती हूँ ….
क्या दर्द मेरे इतने बौने
की दिखते नहीं तुम्हें
रिसते घाव मेरे मन के
क्यों चुभते नहीं तुम्हें
आ जाओ अब समेट लो
खुद में मेरे वजूद को
कि मैं भरोसे की उधड़ी चादर को
अब सीना चाहती हूँ
सुनो मैं अब जीना चाहती हूं…..
ऋतु गोड़ियाल

ऋतु गोड़ियाल

बरेली, उत्तरप्रदेश