उपन्यास अंश

ममता की परीक्षा ( भाग – 55 )

ममता की परीक्षा ( भाग – 55 )

साधना बड़ी देर तक तकिए में मुँह छिपाए सिसकती रही । बाहर खटिये पर बैठे मास्टर रामकिशुन भी कुछ बेचैनी की अवस्था में बैठे हुए थे । रह रहकर उनकी नजर बरामदे में एक खूँटी से लटके लालटेन पर पड़ जाती जो कि उसका इस्तेमाल किये जाने के लिये अभी भी किसी के इंतजार में था । अँधेरा घिर चुका था । अँधेरे में बैठे गुमसुम से मास्टर को यह शांत वातावरण जैसे काट खाने को दौड़ रहा था लेकिन अपनी बेटी की मनोस्थिति से वो अनभिज्ञ नहीं थे । इस समय साधना किस अंतर्द्वंद से गुजर रही होगी उन्हें इसका भली भाँति अहसास था । कई बार उसे आवाज देने का प्रयास करते लेकिन अगले ही पल उसकी स्थिति का ध्यान आते ही खामोश हो जाते । कुछ सोचकर वह उठे और लालटेन की तरफ लपके ही थे कि उन्हें परबतिया आती हुई दिखी । घने अँधेरे में परछाईं की मानिंद दिखनेवाली परबतिया को पहचानने में उनसे कोई गलती नहीं हुई । अपने स्वभाव के अनुसार परबतिया समीप पहुँचने का इंतजार किये बिना दूर से ही चिल्लाकर बोली ,” अरे साधना बिटिया ! कहाँ हो ? अँधेरा हो गया और अभी तक दीया बाती नहीं किया । जानती हो कितना बड़ा अशगुन है ये ? ” और नजदीक आकर मास्टर को लालटेन उतारते हुए देखकर अचरज से बोली ,” हांय ! ये साधना कहाँ गई है और आज तुम दीयाबाती करने जा रहे हो ? ” फिर अचानक जैसे उसे कुछ याद आया हो ” अरे ! मैं भी कितनी भुलक्कड़ हूँ ! तुमसे बताना ही भूल गई । साधना बिटिया की आज दोपहर में तबियत खराब हो गई थी ! ” फिर भेदभरे स्वर में मुस्कुराते हुए धीमे से बोली ,” मुबारक हो ! तुम नाना बननेवाले हो ! ”
सुनकर मास्टर एक बार तो चौंक गया । लालटेन उसके हाथ से फिसलते फिसलते बची । लेकिन शीघ्र ही खुद पर काबू पाते हुए बोले ” काश ! यह खुशखबरी तुमने मुझे थोड़ी देर पहले दे दी होती ……!” कहते हुए मास्टर ने गहरी साँस ली और फिर अगले ही पल बात आगे बढ़ा दिया ” …..तो मैं उन्हें शहर नहीं जाने देता । ”
” क्या हुआ ? किसे शहर नहीं जाने देते ? ” परबतिया ने आश्चर्य से पूछा ।
” जमाई बाबू को ! ” मास्टर ने बुझे हुए स्वर में जवाब दिया ।
” क्या ? जमाई बाबू शहर गए ? लगता है वो मुआ इसी लिए उनको खोज रहा था । …” परबतिया एक ही झटके में कई सवाल कर बैठी । और फिर जैसे खुद से ही बोल रही हो ” लेकिन उसने तो जँवाई बाबू को खुद का दोस्त बताया था ! मैं थोड़ी देर के लिए पड़ोस के गाँव क्या गई यहाँ तो साधना बिटिया की पूरी दुनिया ही बदल गई । देखती हूँ कहीं तबियत तो खराब नहीं है उसकी ! ” कहने के बाद वह उस अंधेरे में भी किसी अभ्यस्त की तरह घर में उस कमरे की तरफ बढ़ गई जिसमें पलंग पर औंधे मुँह पड़ी तकिए को आँसुओं से भिगोते हुए साधना अभी भी सिसक रही थी ।
आहट सुनकर साधना ने जल्दी जल्दी अपने आँसू पोंछें और पलट कर कमरे में खुल रहे दरवाजे की तरफ देखने लगी । कोई परछाई सी उसके कमरे में घूसने का प्रयास कर रही थी कि तभी छनाक से कमरे में लगा बिजली का बल्ब जल उठा । उसकी रोशनी में उसने स्पष्ट देखा परबतिया दरवाजे के बीचोबीच खड़ी उसकी तरफ ही देख रही थी । जबरदस्ती मुस्कुराने का प्रयास करती हुई साधना बोली ,” आइये आइये काकी ! आइये ! ” कहकर वह पलंग पर बिछी चादर में पड़ गई सिलवटें ठीक करने लगी । परबतिया अंदर आते हुए बोली ,” रहने दे रहने दे ! मैं कोई मेहमान थोड़े न हूँ ! ” और फिर पलंग पर बैठते हुए बोली ” ये मैं क्या सुन रही हूँ बिटिया ? जँवाई बाबू शहर गए ? ”
” तो क्या हुआ काकी ? उनकी माँ की तबियत ठीक नहीं थी उनको देखने गए हैं । देखकर वापस आ जाएँगे ।अब कोई उनको बाँधकर तो रख नहीं सकेगा न , चाहे यहाँ चाहे वहाँ ! ” कहते हुए साधना ने जबरदस्ती मुस्कुराने का प्रयास किया था ।
” लेकिन तेरी ऐसी हालत है ये भी तो उनको समझना चाहिए था । तुझे उन्हें रोकना चाहिए था । ” परबतिया ने उसे समझाने का प्रयास किया ।
” कैसी हालत काकी ? क्या हुआ है मुझे ? भली चंगी तो हूँ मैं आपके सामने , और आप हैं कि बेवजह मुझे बीमार बनाये जा रही हैं । ” साधना मुस्कुराई थी ।
” बिटिया ! ऐसी हालत में बड़ी सावधानी रखनी होती है । ये ईश्वर की दी हुई वो सौगात है जो नसीब वालों को ही मिलता है । इसकी बड़ी हिफाजत और बड़ी परवाह करनी होती है । ” परबतिया ने अपने अनुभव की शिक्षा उसपर लादते हुए कहा ।
” मैं क्यों परवाह करने लगी किसी चीज की ? मेरी काकी जो हैं मेरी परवाह करने के लिये ! ” कहने के बाद साधना खिलखिला कर हँस पड़ी । उसकी निश्छल हँसी में कुछ देर पहले का गमगीन माहौल कहीं बिखर सा गया ।
★★★★★★
बंगले के गेट से बाहर निकलकर गोपाल बस डिपो की तरफ जानेवाली सड़क पर बेतहाशा दौड़ पड़ा । वह जल्द से जल्द इस शहर से निकल भागना चाहता था । चंद मिनटों में ही वह अपने माँ बाप की चालाकी समझ गया था ।उसके सामने यह स्पष्ट हो गया था कि उसको वापस बुलाने के पीछे वजह उनका प्यार नहीं बल्कि उनका वह स्वार्थ था जिसे वो उसका विवाह सेठ अम्बादास की इकलौती पुत्री सुशीलादेवी से करके हासिल कर सकते थे । सुशीलादेवी से एक पार्टी में उसकी मुलाकात हुई थी । पहली नजर में उसे देखते ही उससे नफरत सी हो गई थी । मेकअप के नाम पर उसका पूरा चेहरा पूता हुआ था । होठों पर सुर्ख लाल रंग की लिपस्टिक पुती हुई थी जिसे देखकर एक बारगी तो उसे लगा जैसे उसके होठों पर खून लगा हो । बदन दिखाऊ कपड़ों में उसे उसकी तरफ देखने में भी शर्म और घिन्न सी महसूस हो रही थी जबकि वह पूरी पार्टी में किसी तितली की तरह नाचती हुई कभी इस लड़के तो कभी उस लड़के के हाथों से फिसलती हुई बढ़ जाती दूसरे लड़कों की ओर । इसी क्रम में वह उसकी तरफ बढ़ी ही थी कि वह जमनादास के पीछे छिप गया था और वह उसे खा जानेवाली निगाहों से देखती हुई दूसरी तरफ बढ़ गई थी ।
कुछ देर के बाद हाँफते हुए वह एक जगह सड़क किनारे बैठ गया । काफी थक गया था वह ! बुखार अभी तक पूरा उतरा भी न था कि वह जमनादास के साथ निकल पड़ा था यहाँ आने के लिए । अचानक उसका सिर दर्द भी बढ़ गया था । उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसकी खोपड़ी फट जाएगी । अबकी पीड़ा असहनीय हो गई । दर्द की अधिकता से उसकी आँखें छलक पड़ीं । होठों को भींचे बड़ी देर तक वह दर्द बरदाश्त करने की कोशिश करता रहा और फिर वहीं सड़क किनारे लुढ़ककर बेहोश हो गया ।

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।