सुगत सवैया – तृष्णा
मन रूपी घट बसे साँवरे,फिर भी तृष्णा रही अधूरी ।
जैसे वन वन ढूँढ़ रहा मृग ,छिपी हुई मन में कस्तूरी ।
लोभ ,मोह अरु मद माया में ,मृग तृष्णा सा मन भटका है ।
जनम मृत्यु अरु पाप पुण्य के ,उलट फेर में ही अटका है ।
तज सब बंध दरश कब दोगे ,कब हो यह अभिलाषा पूरी ।
मन रूपी घट बसे साँवरे,फिर भी तृष्णा रही अधूरी ।
कर्म जाल में नित उलझा मन ,भव से निकल कहो कब पाया ।
मैं नर हूँ प्रभु तुम नारायण ,सभी तुम्हारी माया काया ।
मैं मजबूर विधी के हाथों ,किंतु आपकी क्या मजबूरी ।
मन रूपी घट बसे साँवरे,फिर भी तृष्णा रही अधूरी ।
— रीना गोयल ( हरियाणा)