नदी
कल-कल करती बहती नदी
जंगल और पहाड़ों से निकलती नदी
इठलाती, बलखाती नागिन रूप बनाती
नित-नित सबकी प्यास बुझाती
बरसातों में रूद्ररूप बनालेती
तब बड़ी डरावनी हो जाती
घर्र – घर्र करके सबकुछ बहा ले जाती
और जन-धन की बड़ी हानि हो जाती
गर्मी में मर जाती, मिट जाती
बस! गंदा सा नाला बन कर रह जाती
दादी कहती वर्षों पहले ऐसी नहीं थी नदी
शहरों ने गंदी करदी निर्मल नदी
अब मिटने को आई नदी
करुणाभरी पुकार करे नदी…
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा