कलुषित मन
“वह कुलटा नारी सम्पूर्ण ग्राम का माहौल खराब कर रही थी। ग्राम का कोई भी परिवार उस कुलटा नारी को पसन्द नहीं करता था। ग्राम की बड़ी-बूढ़ी औरते उसे कुलच्छनी कहती थीं। उस कुलटा नारी का एक ही पुत्र था लेकिन उसका विवाह भी उस कुलटा नारी के लक्षणों के कारण नहीं हो पा रहा था.” प्रवचनकार भागवत कथा में किसी प्रसंग में रस घोलने के लिए अपनी लय में बहे चले जा रहे थे और कुलटा स्त्री शब्द का बार-बार जिक्र कर रहे थे।
उधर पाण्डाल में बैठा पुरूष वर्ग प्रसंग सुनकर आनन्दित हो रहा था तो दूसरी ओर नारी वर्ग में कुछ खुसर-पुसर शुरू हो गई थी।इसी बीच व्यास पीठ पर विराजित प्रवचनकार के पास आकर उनके अनुसरणकर्ता ने कुछ कहा और उसकी बात सुनकर वे आगबबूला हो गए। उन्होंने अपना प्रवचन बन्द कर दिया और आयोजकों को बुलाकर कुछ बातें करने लगे। उनकी चिन्ता कल ही कथा के समापन को लेकर थी।
कुछ देर बाद प्रवचन पुनः प्रारम्भ हो गया। शर्माजी अग्रिम पंक्ति में ही बैठे थे। शर्माजी ने अपने पास बैठे मित्र के कान में फूसफूसाकर कहा- “देखो सतीश बाबू, प्रवचन की फीस को लेकर विवाद था।आयोजकों के पास कलेक्शन पूरा नहीं हो सका था फिर भी उन्होंने हाथ-पैर जोड़कर किसी तरह मामले को निपटा लिया। लगता है कि सन्तश्री के मन में जो कलुष आ गया था, वह मिट गया है। अब वे कुलटा का चरित्र चित्रण बखूबी कर सकेंगे!