लघु कथा- खून में दौड़ती ईमानदारी
सब्जी मण्डी में बहुत भीड़ थी। सब्जियों वाले ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए नये नये तरीके अपना रहे थे और सब्जियों के दाम ऐसे बता रहे थे जैसे कोई नीलामी हो रही हो। ग्राहकों को अपने ठीये पर बुलाने के लिए बेशक वे चेहरे पर हंसी और मुस्कुराहट का मुखौटा ओढ़े थे पर प्रतिस्पर्धा के चलते सब्जियों के दाम गिराने से उनके चेहरे पर आयी पीड़ा देखी जा सकती थी। सब्जियां समय पर नहीं बिकीं तो उनकी ताज़गी ही खत्म हो जायेगी जिससे कीमत और भी गिर जायेगी।
लगभग 18 वर्षीय एक बालक एक सब्जी वाले के पास पहुंचा और अपने साथ लायी गयी सूची के अनुसार उसने सब्जियां खरीदना शुरू कर दिया। सभी सब्जियां खरीदने के बाद उसने दुकानदार को तोल कर पैक करने के लिए दे दीं। बालक पढ़ा-लिखा था। दुकानदार सब्जियां तोलने के बाद उन्हें पैक करता जा रहा था और साथ-ही-साथ मूल्य भी जु़बानी जोड़ता जा रहा था। इधर बालक सूची पर सब्जियों के आगे दुकानदार द्वारा बताया गया मूल्य लिखता जा रहा था। ‘बेटा, तुम क्या लिखोगे, हमारा तो रोज़ का काम है, अगर ऐसे लिखकर हिसाब देने लगे तो बेच चुके सब्जियां, हमारी गिनती तुम्हारे कैलकुलेटर से भी तेज़ होती है’ सब्जी वाला तोलते तोलते बोला। लेकिन बालक ने लिखना ज़ारी रखा। ‘लो बेटा, ये रही तुम्हारी सब्जियां, कुल 263 रुपये हुए, लाओ जल्दी करो, देर हो रही है और भी ग्राहकों को निपटाना है’ दुकानदार बेसब्री दिखा रहा था। ‘भइया, आप दूसरों की सब्जियां तोलिए जब तक मैं हिसाब लगा रहा हूं’ बालक बोला। ‘बेटा, तुम भी अजीब बात कर रहे हो, ऐसे तो हम दुकानदारी कर चुके, मेरा ध्यान दूसरे ग्राहकों की तरफ हुआ और कोई बिना पैसे दिये चला गया तो मैं क्या कमाऊंगा’ दुकानदार ने थोड़ा ज़ोर से बोला था। ‘लाओ, जल्दी से 263 रुपये दो’ तनावग्रस्त दुकानदार फिर बोला।
इतनी देर में बालक ने सूची में लिखे मूल्यों को जोड़ लिया था और दुकानदार को गिनकर 283 रुपये पकड़ा दिये। ‘रहे तुम बच्चे के बच्चे ही न, कौन से स्कूल में पढ़ते हो, तुम्हें पता नहीं 263 रुपये कितने होते हैं, चले थे लिखकर हिसाब लगाने, बेटा तुमने 20 रुपये का नुकसान किया और मुझे 20 साल हो गये हैं सब्जी बेचते, हर ग्राहक को पढ़ लेता हूं’ दुकानदार ने कटाक्ष किया था। बाकी ग्राहक भी दुकानदार का पक्ष लेने लगे थे। ‘भइया, यह लो सूची, इसके हिसाब से जोड़ने पर 283 रुपये बनते हैं, मैंने वही दिये हैं’ बालक बोला। बौखलाए दुकानदार ने एक ग्राहक से कहा ‘बाऊजी जरा देखना’। ग्राहक ने सूची लेकर देखा और बताया कि बालक बिल्कुल ठीक कह रहा है। दुकानदार पर घड़ों पानी पड़ गया और बालक से क्षमा मांगते बोला ‘बेटे, माफ करना, मेरी गलती थी, तुम चाहते तो 263 रुपये देकर जा सकते थे, पर जिस स्कूल में तुम पढ़े हो मैं उसे सलाम करता हूं और खासतौर से तुम्हारे मां-बाप को जिनकी वजह से तुम्हारे खून में ईमानदारी दौड़ रही है, मैंने तुम्हें पढ़ने में गलती कर दी है।’
आदरणीय सुदर्शन जी, सादर नमन. 1.ईमान बेचने के लिये जो मशहूर है शह्र में,
इनाम उसको ही ईमानदारी का कल दिया है, हुकूमत ने. 2. कल देखा ईमान बिकते
वही पुराने थोक भाव में, यही एक चीज है मेरे शह्र में जो कभी महंगी नही होती.
कल देखा भाई चारा रिश्वत में, यही एक चीज है मेरे शह्र में जो लोग मिल बांटकर
खाते हैं. 3. कठिन राहें भी आसान लगती हैं, जब दोस्ती और ईमानदारी साथ मिलती है
प्रिय ब्लॉगर सुदर्शन भाई जी, बहुत सुंदर संदेश देती हुई लघुकथा के लिए बधाई. आज भी ईमानदार लोग मिलते हैं और ईमानदारी का परिचय देकर अपना, अपने कुल का और स्कूल का नाम रोशन करते हैं. आपकी कथा का हीरो ईमानदारी के संस्कारों से सराबोर है. सटीक व सार्थक कल्पनातीत रचना के लिए बधाई-बधाई-बधाई.
आदरणीय दीदी, सादर प्रणाम. न जाने किन गिरते सामाजिक स्तरों के कारण ईमानदारी दूर चली गयी है. हमारे समय में स्कूल में नैतिक शिक्षा का एक पीरियड हुआ करता था जो हमारे गुरूजी अत्यंत रुचिकर तरीके और मनोयोग से पढ़ाते थे. विद्यार्थी भी उत्सुकता से सुनते थे. अब तो ईमानदारी मजाक का विषय बन गई है. ईमानदार व्यक्ति को अक्सर सुनने को मिलता है ‘युधिष्ठिर की सन्तान’. ऐसे कुछ उदाहरणों से ईमानदारी को खोया सामान वापिस मिल सकता है. शानदार और सटीक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद.