गीतिका/ग़ज़ल

गीतिका

आदमी का घर हुआ गुम आज ईंटों पत्थरों में
है कहाँ वह प्यार जो पलता कभी था छप्परों में
जान दे दी हँसते-हँसते दौर वो कुछ और ही था
ढूँढना इंसानियत भी अब कठिन है खद्दरों में
गीत का मुखड़ा सुनाया आपने है खूबसूरत
इल्तिजा यह जोश जारी आप रखिये अंतरों में
दीमकें चुपचाप चट करती रहीं सारी जड़ों को
देश की जनता उलझ के रह गई बस बंदरों में
अब कहाँ लोगों में वैसा बच गया मिल बैठना भी
कुर्सियाँ खाली मिलेंगी आपको अक्सर घरों में
खास थीं जो अर्जियाँ  सज गईं हैं टेबलों पर
वजन जिन पर न था वो उड़ रहीं हैं दफ्तरों में
थाम कर वैशाखियाँ कितनी ऊँचाई नाप लोगे
आसमाँ गर चूमना हो दम रखो अपने परों में
बसंत कुमार शर्मा

बसंत कुमार शर्मा, IRTS

उप मुख्य परिचालन प्रबंधक पश्चिम मध्य रेल 354, रेल्वे डुप्लेक्स बंगला, फेथ वैली स्कूल के सामने पचपेढ़ी, साउथ सिविल लाइन्स, जबलपुर (म.प्र.) मोब : 9479356702 ईमेल : [email protected] लेखन विधाएँ- गीत, दोहे, ग़ज़ल व्यंग्य, लघुकथा आदि