व्याकुलता
कभी-कभी निःशब्द, दबे पांव
आती है व्याकुलता,
शनैः-शनैः प्रविष्ट हो हृदय में,
जागृत करती हैपोर-पोर,
दग्ध होने लगती है
भूगोल देह की।
प्रणय की आकुलता
स्पर्श की व्यग्रता
विवश करती हैं
ना केवल समर्पण देह की अपितु,
नग्न रूह भी सौंप देने को
आतुर प्रत्येक बार।
रूह का समर्पण
कभी तृष्णा का अंत नही करता,
ये सुलगती है गीली लकड़ी सम,
अंतर्मन उबलता है
प्रिय के साधिन्य को,
ये साधिन्य पहुँचाती है
साधना के चरम तक,
पर तृष्णा कभी बुझती नहीं
यही तृष्णा जीवित रखती है
प्रणय की आकुलता और
स्पर्श की व्यग्रता,