कश्मीर समस्या
भारत का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर अपने स्वर्णिम इतिहास को संजोए हुए है। उसकी हसीन वादियों एवं प्राकृतिक सौन्दर्य ने प्रत्येक मानव मस्तिष्क को आकर्षित किया है, उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, साहित्य-कला ने अपना प्रभाव भारतीय संस्कृति पर डाला है। पंद्रहवी सदी में यदि भारत के विवरण को देखें तो पता चलता है कि कश्मीर शैव सम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र माना जाता था। कश्मीर हिन्दू संस्कृति, सभ्यता, कला व विद्वानों की तपस्या स्थल रही है, महान कल्हण कृत राजतरंगिणी की रचना यहीं पर हुई। जिसमें कश्मीर का इतिहास वर्णित है। इस पवित्र भूमि पर अनेंको विद्वानों ने अपने ग्रन्थों को रचकर भारतीय साहित्य की संवृद्धि की है। कश्मीर ने पुरातन काल से ही अपने वैभव के द्वारा भारत को समृद्धशाली बनाया है लेकिन काल के कू्रर हाथों द्वारा उसका ह्रास भी अछूता नही रहा, उस पर भी विदेशी आक्रान्ताओं, कटट्रपन्थी सोचों का आक्रमण प्रारम्भ हुआ जो अनवरत जारी है। आज कश्मीर स्वर्णिम इतिहास से लेकर वर्तमान के रक्तरंजित आतंकवाद का गवाह रहा है। आज कश्मीर आतंकवाद, अलगाववाद, संप्रदायिकता की आग में जल रहा है। उस आग में बलिदान होकर हमारें सैनिक उस को शान्त कर रहें हैं। कुछ देशद्रोहियों के कारण यह आग विकराल रूप लेती जा रही है। इसका प्रारम्भ चैदहवीं सदी के अन्त में कश्मीर में हिन्दू शासन की समाप्ति के बाद मंगोल नेता दलूचा का 1325 में कश्मीर पर भयानक हमला उसका आरंभ था। कहते हैं कि दलूचा ने पुरूषों के कत्ले-आम का आदेश दिया जबकि स्त्रियों और बच्चों को गुलाम बनाकर मध्य एशिया के सौदागरों को बेच दिया गया। गांव और शहरों को लूटा गया और उन्हें जला दिया गया।
इस प्रकिृया को सिकंदर शाह (1389 से 1413) के काल में ब्राहमणों के निर्मम दमन ने पूरा किया गया। सुल्तान का आदेश था कि सभी ब्राहमणों और हिन्दू विद्ववान मुसलमान बनें या वादी छोड़कर चले जाएं। उनके मंदिरों को ध्वंस्त करने तथा सोने-चांदी की मूर्तियों को पिघलाकर मुद्राओं में ढ़ालने का आदेश दिया गया। भारत विभाजन के बाद जम्मू-कश्मीर रियासत को भारत में मिलाने का प्रयास कठोरता के साथ सरदार पटेल ने किया परन्तु राजनीतिक दबाव के कारण यह सम्भव नहीं हो सका। कश्मीर रियासत की सीमा भारत और पाकिस्तान दोनों से मिलती थी। इसका शासक हरि सिंह था। 22 अक्टूबर 1947 ई0 को पाकिस्तानी सैनिक अफसरों के नेतृत्व में पठान कबीलाईयों ने कश्मीर में घुसपैंठ कर दी। घबराकर 24 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय पर हस्ताक्षर कर दिए। शेख अब्दुल्ला को रियासत प्रमुख बना दिया 27 अक्टूबर को भारतीय सेना कश्मीर में दाखिल हो गई और उसने धीरे-धीरे आक्रमणकारियों को घाटी से बाहर खदेड़ दिया।
तत्कालीन सरकार ने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध के खतरे को देखते हुए भारत सरकार ने 30 दिसम्बर 1947 ई0 को माउण्ट बेटन की सलाह पर कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भेजने को तैयार हो गई। पाकिस्तान परस्त के कारण सुरक्षा परिषद ने कश्मीर प्रश्न को ही बदल कर रख दिया। उसने उसे भारत-पाकिस्तान विवाद बना दिया जबकि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग था लेकिन तत्कालीन सरकार की अदूरदृष्टि व फूट डालों और राज करो की सलाह ने कश्मीर को नासूर बना दिया जिसका परिणाम भारत आज तक भुगत रहा है। भारत कश्मीर के विलय को अन्तिम और अपरिवर्तनीय मानता है तथा कश्मीर को अभिन्न अंग मानता है, परन्तु पाकिस्तान इस दावे को मानने से इंकार करता है। यू0 एन0 के हस्तक्षेप से हुए युद्ध विराम की वजह से जम्मू-कश्मीर घाटी और गिलगित ब्लूचिस्तान का भू-भाग पाकिस्तान के कब्जे में रह गया जो कि पाक-अधिकृत कश्मीर कहा जाता है। वह करीब 40 फीसद हिस्सा हासिल करने में कामयाब रहा है। उसने इसमें पूर्वी हिस्से अक्साईचिन, चीन को दिया जिससे वह उससे सामरिक संबन्ध जोड़ने में सफल रहा। तब से अब तक कश्मीरी में पाकिस्तान का छद्म युद्ध अनवरत जारी है। उसका सहयोग करने के लिए भारत के कुछ गद्दार व अलगाववादी नेता पाकिस्तान को समर्थन करते हैं। कश्मीर में लगातार आतंकवाद की समस्या बढ़ती जा रही है। वर्ष 1999 में हुआ कारगिल युद्ध 1947 के छदम् युद्ध की ही दूसरी कड़ी थी। आतंकवाद की आग में भारत ने बहुत कुछ खोया है। हम अब तक अपनी जमीन पर लडते हुए 45 हजार से भी अधिक भारतीयों की जान गवां चुके हैं। एक ऐसा दौर भी आया जब 2.50 लाख कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन किया। वे भारत में निर्वासित जीवन यापन कर रहे हैं। उनके लिए शायद कोई मानवाधिकार है ही नही, जो उनके लिए आवाज उठा सके। वे अपने देश में ही बेगानों की तरह जीवन जी रहे हंै, उनसे तो अच्छे घुसपैंठिऐ हंै जिनके लिए कुछ नेता व मानवाधिकारी मरने के लिए तैयार है। आतकंवाद के कारण ही भारतीय वायुसेना का 1999 में पाकिस्तान में फल-फुल रहे आतंकी संगठनों में से एक जैश-ऐ-मौहम्मद द्वारा अगवा कर लिया गया। 2001 में जम्मू-कश्मीर विधान सभा पर हमला, 2002 में कालूचक हमला जिसमें 21 जवान शहीद हुए व करीब 36 नागरिकों की मृत्यु हुई। उरी, हंदवाडा, शोपियां तंगधार, कुपवाडा, पंपोर, श्रीनगर, सोपोर राजौरी तथा बडगाम, पठानकोट तथा पुलवामा हमलों में हमने सैनिकों के रूप में बडी कीमत की चुकाई है। पुलवामा हमलें में 40 जवानों की शहादत ने देश में क्रोध की ज्वाला को धधका दिया जिसका असर सरकार की कार्यवाही के रूप में देखने को मिला। ग्रह मंत्रालय के अनुसार 2014 में जहां 222 आतंकी घटनाएं हुई थी, वहीं 2018 में 91 जवान शहीद हुए है। आखिर हम कब तक अपने जवानों की शहादत नेताओं की कुर्सी के लिए देते रहेंगे। नेताओं को खुश करने के लिए 1000 पत्थरबाजों पर दर्ज मुकदमें वापस लेने की कार्यवाही सेना के मनोबल को कमजारे करती है। सरकार को कोई ठोस कदम उठाने की जरूरत है नही ंतो स्वर्ग जैसा कश्मीर नरक बन जाएगा। अलग प्रधानमंत्री बनाने व कश्मीर के अलग होने की बात करने वाले उमर-अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, फारूख अब्दुल्ला जैसे नेताओं को जेल में डाल देना चाहिए, जो देश का नही वह किसी का नही। धारा 370 अनुच्छेद 35 क को समाप्त कर देना चाहिए। ध्यान रहे धारा 370 एक अस्थाई धारा है और इसे नेशनल कान्फे्रस के नेता शेख अब्दुल्ला के दबाव में शामिल किया गया था। देश मंे तत्कालीन नृेतत्व ने शेख अब्दुल्ला के दबाव में आकर जो भूल की उसके दुष्परिणाम अब हद से ज्यादा बढ़ गए है। एक सर्जिकल-स्ट्राइक व एयर-स्ट्राइक से कुछ नही होगा जब तक एक स्ट्राईक देशद्रोही नेताओं व अलगाववादियों पर नही होगी। देश की सबसे बडी विडम्बना है मेरे देश का जवान कश्मीर में शहादत तो दे सकता है, मर सकता है लेकिन कश्मीर में रह नही सकता। कश्मीर से धारा 370 को समाप्त किए बिना इस समस्या का समाधान नही हो सकता। अब देश को कश्मीर के ऊपर निर्णायक फैसला करना ही होगा। इस देश में एक संविधान एक विधान होगा जो इसका विरोध करेगा उसका वही ईलाज होगा जो सैनिक चाहेंगें। कश्मीर को तबाह होने से पहले कड़े निर्णय लेने की आवश्यकता है जिससे अखण्ड भारतवर्ष का सपना साकार हो सके।
— सोमेन्द्र सिंह