तुम्हारी महफ़िल में और भी इंतज़ाम है
तुम्हारी महफ़िल में और भी इंतज़ाम है
या फिर वही शाकी,वही मैकदा,वही जाम है
शायर बिकने लगे हैं अपने ही नज़्मों की तरफ
पुराने शेरों को जामा पहना कर कहते नया कलाम हैं
आप शरीफ न बन के रहें इन महफिलों में
वरना शराफत बेचने का धंधा सरे-आम है
रूमानियत,शाइस्तगी,मशरूफियात बेमाने हो गए
जाइए बाज़ार में,ये बिकते वहाँ कौड़ी के दाम हैं
इस पेशे में जिगर देके भी तो गुज़ारा होता नहीं
शायद इसीलिए शायर और शायरी बदनाम है
— सलिल सरोज