विलुप्त होने के कगार पर राजस्थान का राज्य पक्षी ‘गोडावण’
समूचे विश्व के समक्ष आज पर्यावरण संरक्षण व प्राकृतिक संतुलन एक गंभीर चुनौती बनती जा रही है। दिनोंदिन बढ़ती जनसंख्या के कारण वनोन्मूलन की प्रक्रिया तेज होने से परिंदों की कई प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं और कई पक्षी ऐसे हैं, जिनकी संख्या लगातार कम हो रही है। संरक्षण के लिए मोहताज इन पक्षियों की विलुप्त होती प्रजातियों में राजस्थान का राज्य पक्षी गोडावण अग्रणी रूप से शामिल है। अर्ध-मरुस्थलीय शुष्क जलवायु वाले प्रदेशों में मिलने वाला यह पक्षी भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची 1 में रखा गया है। भारत सरकार के बहुप्रचारित ‘प्रजाति रिकवरी कार्यक्रम’ में चयनित 17 प्रजातियों में गोडावण भी है। इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर की संकटग्रस्त प्रजातियों पर प्रकाशित होने वाली रेड डाटा पुस्तिका (बुक) में इसे ‘गंभीर रूप से संकटग्रस्त’ श्रेणी में रखा गया है।
यह पक्षी सोहन चिड़िया तथा शर्मिला पक्षी के उपनामों से भी प्रसिद्ध है। यह एक शांत पक्षी है, लेकिन जब इसे डराया जाए तो यह हुक जैसी ध्वनि निकालता है। इसीलिए उत्तरी भारत के कुछ भागों में इसे ‘हुकना’ के नाम से भी पुकारा जाता है। इसके द्वारा बादल के गरजने अथवा बाघ के गुर्राने जैसी ध्वनि उत्पन्न करने के कारण ‘गगनभेर’ या ‘गुरायिन’ के नाम से भी जाना जाता है। इसके शरीर का रंग भूरा होता है और पंखों पर काले, भूरे व स्लेटी निशान होते हैं। हल्के रंग की गर्दन और सिर व माथे पर काले किरीट से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इसकी ऊंचाई लगभग एक मीटर होती है। गौरतलब है कि गोडावण को राजस्थान के राज्य पक्षी के रूप में 21 मई 1981 को दर्जा मिला था। इसका वैज्ञानिक नाम क्रायोटिस नाइग्रीसेप्स है तथा इसे अंग्रेजी भाषा में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) कहा जाता है। गोडावण का प्रजनन काल अक्टूबर, नवम्बर का महीना माना जाता है। गोडावण मूलतः अफ्रीका का पक्षी है और इसका प्रिय भोजन मूंगफली व तारामीरा है। शुतुरमुर्ग की तरह दिखाई देने वाला यह पक्षी राजस्थान के अलावा गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश में भी देखा जा सकता है।
पांच-छः दशक पहले देश भर में गोडावण की संख्या 1000 से अधिक थी। एक अध्ययन के अनुसार 1978 में यह 745 थी, जो 2001 में कम होकर 600 व 2008 में 300 रह गई। अब ज्यादा से ज्यादा 150 गोडावण बचे हैं जिनमें 122 राजस्थान में और 28 पड़ोसी राज्य गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश में हैं। इसमें भी गोडावण अंडे फिलहाल केवल जैसलमेर में देते हैं। इसका अस्तित्व अब जैसलमेर जिले में विभिन्न देवताओं के मंदिरों के ओरण क्षेत्र में ही बचा है। जैसलमेर और बाड़मेर जिले के करीब 3962 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले राष्ट्रीय मरु उद्यान में पिछले डेढ़ दशक से गोडावण की संख्या में निरंतर कमी हो रही है। लगातार पलायन के चलते उद्यान परिसर के सम, सुदाश्री, सोकलिया, फूलिया, म्याजलार, खुड़ी और सत्तो आदि क्षेत्र में 20 प्रतिशत से भी कम गोडावण बचे हैं। चार दशक पूर्व तक डीएनपी क्षेत्र में गोडावण की संख्या करीब 1260 थी, जो घटकर 44 रह गई है। हालांकि, सरकारी नियमों के अनुसार गोडावण के संरक्षण के लिए कठोर कानून प्रचलन में है। इसका शिकार करने वालों को 10 वर्ष की सजा एवं 25 हजार रुपए का जुर्माना भुगतना पड़ सकता है। इसके बावजूद भी इसका शिकार किया जा रहा है और इसकी संख्या निरंतर घट रही है।
गोडावण की संख्या में लगातार होने वाली गिरावट के पीछे कई कारण जिम्मेदार है। इसके लिए सेवण घास अनुकूल होती है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सेवण घास के चारागाह में कमी आयी है तथा हरे घास के मैदान के सिमटने की वजह से इनके आवास के स्थान खत्म हुए हैं। गोडावण का मांस खाने में लजीज व गरम होने के कारण इनके शिकार के लिए शिकारी भटकते रहते हैं। वहीं खनन, पेस्टीसाइड का इस्तेमाल, इनके आवास स्थल पर अतिक्रमण व कतिपय लोगों द्वारा मनोरंजन के लिए इनके शिकार करने के चलते इनकी संख्या कम हुई है। समस्त दुनिया में करीबन लुप्तप्राय माने जाने वाले गोडावण केवल राजस्थान के जैसलमेर में ही बचे हैं। लेकिन यहां भी कैप्टिव ब्रिडिंग शुरू नहीं होने पाने से ये अस्तित्वहीन होते जा रहे हैं। शिकारियों के अलावा इस पक्षी को सबसे बड़ा खतरा विशेष रूप से राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में लगी विंड मिलों के पंखों और वहां से गुजरने वाली हाईटेंशन तारों से हैं। हाईटेंशन लाइनों के कारण पिछले एक वर्ष में तीन गोडावण जान गंवा चुके हैं। दरअसल, गोडावण की शारीरिक रचना इस तरह की होती है कि वह सीधा सामने नहीं देख पाता। शरीर भारी होने के कारण वह ज्यादा ऊंची उड़ान भी नहीं भर सकता। ऐसे में बिजली की तारें उसके लिए खतरनाक साबित हो रही हैं।
केंद्र सरकार और राज्य सरकार भले गोडावण के संरक्षण के दावे कर रही हो लेकिन हकीकत यह है कि जैसलमेर जिले के वे इलाके जो इन गोडावणों के लिये प्राकृतिक आश्रय स्थल व प्रजनन स्थल हुआ करते थे वहां पवन ऊर्जा कंपनियों को संयंत्र लगाने के लिये जमीनें आवंटित कर दी गई हैं। इस इलाके में अब पवन ऊर्जा कंपनियों ने बड़ी तादाद में अपने संयंत्र लगा दिये हैं और लंबी-चौड़ी विद्युत लाइनों का जाल बिछा दिया है जिसके चलते गोडावण यहां से माईग्रेट होने लगे हैं। ये इलाके जो कभी ग्रासलैण्ड हुआ करते थे वहां अब पवन ऊर्जा संयंत्र लगने से इंसानी दखल बहुत ज्यादा बढ़ गया है जिससे ये शर्मिला पक्षी अपना स्थान छोड़ने लगा है। अब इस पक्षी को सुरक्षित आश्रय व प्रजनन स्थल नहीं मिल पा रहा है जो कि इनकी संख्या में गिरावट का सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है। गौर करने वाली बात है कि गोडावण संरक्षण के लिए राज्य सरकार की ओर से 26 करोड़ की नई योजनाओं के क्रियान्वयन के बाद भी गोडावण की संख्या घटी है।
पक्षी प्रेमी हैरान हैं कि कुछ दशक पहले तक जिस गोडावण को राष्ट्रीय पक्षी बनाने की बात हो रही थी उसका अस्तित्व आज संकट में है। निःसंदेह, गोडावण को बचाने का यह अंतिम मौका है। अगर अब भी हम नहीं चेते और कुछ मजबूत पहल नहीं की तो बचे-खुचे गोडावण भी अगले 10-15 साल में गायब हो जाएंगे और राजस्थान को अपने राज्य पक्षी के दर्जे के लिए कोई और पक्षी तलाशना पड़ेगा। इस संदर्भ में पक्षी विशेषज्ञों का यह कहना उचित है कि जिस तरह इलेक्ट्रिक की अंडरग्राउण्ड लाइनों को प्लास्टिक के खोल से सुरक्षित रखने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। यही प्रक्रिया जमीन से ऊपर प्रवाहित बिजली की लाइनों के लिए प्रयुक्त करना चाहिए। बर्ड डायवर्टर के साथ रात में चलने वाली पवन चक्कियों के पंखों पर रेडियम की पट्टियों का प्रयोग करने से पक्षी को अपनी उड़ान की राह बदलने में आसानी हो सकती है। हालांकि, गोडावण का वजन 20 से 25 किलो होने के कारण ज्यादा उड़ान नहीं भर पाता है। सरकार को टाइगर प्रोजेक्ट से आगे भी सोचना चाहिए। जिस प्रकार बाघों को बचाने के लिए केंद्र सरकार ने टाइगर प्रोजेक्ट बनाया। उसी तरह विलुप्त होते जा रहे पक्षियों के लिए भी प्रोजेक्ट बनने चाहिए। इस दिशा में घास के मैदान, चरागाह खत्म होने से रोकने के उपाय करना भी आवश्यक है। गोडावण पक्षी के संरक्षण व बचाव के लिए जून 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रोजेक्ट ‘ग्रेट इंडियन बस्टर्ड’ शुरू किया था। लेकिन इसके कुछ ही महीने बाद ही उनकी सरकार चली गयी और मामला ठंडे बस्ते में चला गया। लेकिन अब एक फिर राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार है तो आशा की जानी चाहिए सरकार अपने अधूरे प्रयासों को पूरा करने के लिए अविलंब कदम उठायेगी।