बड़ी अजीब सी होती जा रही है
शहरों की रौशनी
उजालों के बावजूद
चेहरे पहचानना
मुश्किल होता जा रहा है
नादान होता जा रहा है
आज का इंसान
अटकता है
जब दुःख आता है
भटकता है
जब सुख आता है
न जाने किस पथ पर
चल पड़ा है
इसी को ही
अग्निपथ समझ बैठा है
पर वह भूल जाता है
समय की मार को
क्योंकि
समय जब फैसला सुनाता है तो
गवाहों की ज़रुरत नहीं होती
प्रिय ब्लॉगर सुदर्शन भाई जी, सबसे पहले तो बहुत ही सुंदर कविता के लिए बधाई. यह कविता क्या है, गागर में सागर है. हम कहाँ जा रहे हैं, एक ऐसा यक्ष प्रश्न, जो आजकल हर एक अपने से पूछ रहा है, लेकिन जताता नहीं. इसका कारण भी तो हम खुद ही हैं. समय की मार को समझते हुए भी हमने ही नादानी का नकाब ओढ़ रखा है. बहुत सुंदर संदेशप्रद रचना के लिए आभार.