लघुकथा

लघुकथा – मदर्स डे

मई के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाने का फेशन चल रहा है। गांव में अकेली रहने वाली अपनी अम्मा को कोरियर से एक सुंदर सा कार्ड अमेजन से भिजवा दिया। पत्नी एवं बच्चों के साथ हवाई यात्रा कर सरकारी सुविधा का उपयोग कर कश्मीर से लोटने पर वाट्सएप पर एक अनजान महिला का मैसेज पढा ——

अन्कल जी प्रणाम। तमलाव गांव में आपकी अम्मा जी की पडोसन पूजा। अम्मा को आपका कार्ड मिला। हम कल ही अम्मा का मोतियाबिंद का इलाज कोटा से करवाकर लौटे हैं। चिनता मत कीजिए। आपरेशन ठीक है गया है। अम्मा लिखवा रही हैं–

तेरा कार्ड मेरे किस काम का ? पूजा ने अपने स्कूल से छुट्टी लेकर शहर जाकर मुझे देखने लायक किया। खेत का टुकड़ा नहीं बेचने दिया। क्या करती ? तुमने तो सालों से पूछा नहीं। बस हर साल मई में एक कार्ड भेजकर बहू की इच्छा का पालनकर अम्मा से  सालाना व्यवहार निभा लेते हो। काश समय निकालकर कभी मिलने भी आते एवं मनी आर्डर भी भेजते रहते तो पराई पूजा को मेरे इलाज के लिए अपने स्कूल से उधार नहीं लेना पड़ता। गांव में बात करते मुझे शर्म लगती है कि तुम एक बड़े अधिकारी हो। कार्ड में रुपए बर्बाद मत किया करो। वापिस भिजवा रही हूँ  —- तुम्हारे बचपन वाली अम्मा।

पूजा का मैसेज पढकर भीगी पलकों से कार्ड डस्टबिन में फेक दिया एवं लैपटॉप खोलकर गांव जाने वाली ट्रेन में तत्काल में टिकट बुक कर जाने की तैयारी करने लगा। अम्मा खरी बात भी सुनाती हैं। पर कल सुबह जब तमलाव पहुंचने पर गले भी लगाकर पूजा को भैया के लिए दो रोटी ज्यादा बनाने के लिए भी कहेंगी।  हम शहर वाले बस एक मदर्स डे वाले दिन के लिए बेटे बेटी बनने का नाटक करने लगे हैं। पर अम्मा तो पूरे जीवन भर हर दिन की अम्मा हैं। सारी अम्मा  !!
दिलीप भाटिया 

*दिलीप भाटिया

जन्म 26 दिसम्बर 1947 इंजीनियरिंग में डिप्लोमा और डिग्री, 38 वर्ष परमाणु ऊर्जा विभाग में सेवा, अवकाश प्राप्त वैज्ञानिक अधिकारी