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विश्व को वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना भारत की देन हैः पीयूष शास्त्री

ओ३म्

आर्यसमाज सुभाषनगर-देहरादून के वार्षिकोत्सव के समापन समारोह में अपने सम्बोधन में आर्य विद्वान पं0 पीयूष शास्त्री ने कहा कि वेद पढ़ना व पढ़ाना, यज्ञ करना व कराना तथा दान देना व दान लेना ब्राह्मण के लक्षण होते हैं। जिन में यह लक्षण पूरे पूरे घटे वही सच्चा ब्राह्मण होता है। उन्होंने कहा कि मनुष्यों को सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सदैव तत्पर रहना चाहिये। पंडित जी ने कहा कि यह आर्यसमाज का चौथा नियम है जो निर्विवाद होने से सबके लिये आचरणीय है। पंडित जी ने कहा कि भारत के ऋषियों के विचार व सन्देश संसार के सभी मानवों के लिये थे। हमारे देश के ऋषियों ने ही विश्व को ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्” अर्थात् सारा विश्व एक परिवार है, यह सर्वोच्च सन्देश दिया था। विद्वान वक्ता ने कहा कि वसुधैव कुटुम्बकम् की विचारधारा को ही संसार में फैलाने की आज आवश्यकता है। इन विचारों के फैलने से विश्व में सुख व शान्ति आयेगी।

पंडित जी ने एक कथा सुनाई और कहा कि राक्षसों ने प्रजापति से देवताओं की शिकायत की कि देवता हमें शान्ति से जीने नहीं देते। देवताओं ने प्रजापति को कहा कि हम तो सबकी भलाई चाहते हैं व करते भी हैं। इसके विपरीत राक्षस हमें कष्ट देते हैं। इस पर प्रजापति ने राक्षसों से पूछा कि क्या वह स्वर्ग में जाना चाहते हैं। राक्षस इसके लिये तैयार हो गये और उन्हें स्वर्ग में भेज दिया गया। देवताओं ने नरक में जाना पसन्द कर लिया और अपने सद्ज्ञान एवं पुरुषार्थमय जीवन सहित ईश्वरोपसना एवं अग्निहोत्र यज्ञ करके नरक को ही स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बना दिया। दूसरी ओर राक्षसों ने स्वर्ग में रहकर भी अपनी राक्षसी व तामसिक मनोवृत्तियों से स्वर्ग को नरक व दुःखदायी बना दिया। पंडित जी ने कहा कि ऐसा ही होता है। राक्षसी प्रवृत्ति के लोग सुख को दुःख में बदल देते हैं और देवता ज्ञान व पुरुषार्थ से दुःख को सुख में बदल देते हैं। पंडित जी ने दीपक का उदाहरण देकर कहा कि एक छोटा सा दीपक जहां भी जाता है वह अंघकार रूपी अज्ञान व राक्षस का वध कर वहां ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न करता है।

पंडित पीयूष शास्त्री जी ने गुरु नानक जी के जीवन से जुड़ी एक कथा भी सुनाई। उन्होंने कहा कि एक बार नानक जी अपने शिष्यों के साथ एक गांव में गये। उन लोगों ने नानक जी व उनके शिष्यों के प्रति अच्छा व्यवहार नहीं किया। नानक जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम यहीं बसे रहो। तुम विस्थापित न किये जाओ। उसके बाद वह दूसरे गांव में गयें। वहां के लोग सात्विक प्रवृत्ति के लोग थे। उन्होंने नानक जी व उनके शिष्यों की खूब सेवा की। नानक जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम सब उजड़ जाओ। इस पर नानक जी के शिष्यों को हैरानी हुई। उन्होंने नानक जी से पूछा कि आपने उन्हें उजड़ने का आशीर्वाद क्यों दिया? नानक जी ने कहा कि बुरे लोग यदि एक स्थान पर बसे रहेंगे तो बुराई बढ़ेगी नहीं। दूसरी ओर अच्छे लोग यदि उजड़ेंगे नहीं तथा दूसरे स्थानों पर फैलेंगे नहीं, तो इससे अच्छाई का प्रसार नहीं होगा। पंडित जी ने कहा कि अच्छाई का प्रचार व प्रसार करने के लिये अच्छे लोगों का उजड़ना व संसार में फैलना आवश्यक है। पंडित जी ने कहा कि हमारे वेद प्रचारकों को भी संसार में फैल कर अज्ञान तिमिर को दूर कर वेद ज्ञान के प्रकाश को फैलाना चाहिये।

पंडित पीयूष शास्त्री जी ने कहा कि यदि वेद के विचार संसार में फैल जाते तो संसार में अशान्ति नहीं अपितु सर्वत्र शान्ति होती। पंडित जी ने कहा कि हम वेदों का प्रचार तो करते हैं परन्तु क्या हम वेद की शिक्षाओं के अनुसार आचरण भी करते हैं? उन्होंने कहा कि शायद हमारे आचरण वेदानुकूल नहीं है। इसी कारण वेद प्रचार नहीं हो पा रहा है। विद्वान वक्ता ने कहा कि आश्चर्य है कि आज आर्यों के घरों में भी वेद नहीं है। वेदों को पढ़ना व उस पर आचरण करना तो बाद की बात है। पीयूष जी ने कहा कि हमारे विद्वानों ने कड़ी मेहनत करके वेदों का सरल व सुबोध भाष्य किया है। उन्होंने कहा कि वेद कठिन नहीं हैं। यदि आप वेदों को पढ़ेंगे तो यह आपको अवश्य समझ में आयेंगे। पंडित जी ने बताया कि महाभारत में कृष्ण जी ने कहा है कि वह प्रतिदिन यज्ञ करते हैं और विद्वानों से वेद की चर्चा सुनते हैं। उन्होंने पूछा कि क्या हम श्री कृष्ण जी की इस बात को मानते हैं?

पंडित जी ने पुनः कहा कि वेद और शास्त्र पढ़ना कठिन नहीं है। हमारे विद्वानों ने वेद को समझने के काम को सुगम कर दिया है। यदि हम दिन में आधा घंटा भी वेद पढ़ेंगे तो हमारी आत्मिक उन्नति होगी। हमारे मन व आत्मा पवित्र होंगे। स्वाध्याय करने से हमारे कर्म व भोग भी पवित्र होंगे जिससे हमें सुख व शान्ति की प्राप्ति होगी। पंडित जी ने कहा कि हमने जीवन में ऋषि दयानन्द जी के जीवन का अनुकरण किया है जिससे हमें सर्वत्र सम्मान मिलता है। इस सम्मान व सुख का श्रेय महर्षि दयानन्द जी महाराज को है। पं0 पीयूष शास्त्री जी ने कहा कि विद्वान की सर्वत्र पूजा होती है। उन्होंने कहा कि यदि आपका ज्ञान, आचरण और व्यवहार अच्छा है तो आप संसार में पूजनीय बनेंगे। यदि हमारा आचरण अच्छा नहीं होगा तो लोग हमारी निन्दा करेंगे। संसार के सभ्य व सज्जन लोग राम चन्द्र जी का नाम आदर से इसलिये लेते हैं क्योंकि उनका आचरण अच्छा था। उन्होंने कहा कि माता पिता को वही पुत्र प्रिय होता है जिसका आचरण व व्यवहार अच्छा होता है। अपने सम्बोधन को विराम देते हुए पंडित जी ने कहा कि हम गर्व से कहते हैं कि हम महर्षि दयानन्द जी के शिष्य हैं। इसी के साथ उन्होंने अपने व्याख्यान को विराम दिया।

पं0 पीयूश शास्त्री जी के बाद आर्यसमाज सुभाषनगर-देहरादून के विद्वान युवा पुरोहित पं0 अमरनाथ शास्त्री का व्याख्यान हुआ। उन्होंने कहा कि हमारा भारत अतीत में स्वर्ण भूमि के नाम से विश्व विख्यात था। विश्व के सबसे बड़े विश्वविद्यालय नालन्दा एवं तक्षशिला हमारे देश में विद्यमान थे। इन विश्वविद्यालयों एवं इतर शिक्षणालयों में विश्व के लोग धर्म, संस्कृति, चरित्र व ज्ञान विज्ञान की शिक्षा लेने आते थे। मनुस्मृति के एक प्रसिद्ध श्लोक की चर्चा कर उन्होंने कहा कि हमारा देश ही विश्व में सबसे उत्तम कोटि के विद्वान, ऋषि, मुनियों व योगियों को उत्पन्न करता था और विश्व के प्रमुख लोग यहां चरित्र की शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते थे। पुराणों के आधार पर विद्वान वक्ता महोदय ने कहा कि देवता भी भारत में मनुष्य व देव कोटि का जन्म लेने के लिए तरसते हैं। राम का आदर्श न केवल भारत अपितु विश्व के करोड़ों लोगों को आकर्षित करता है। पंडित अमरनाथ जी ने राम के वन गमन की घटनाओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि हमें अपने जीवन की उन्नति के लिये राम के आदर्श जीवन को अपने जीवन में ढालना चाहिये। उन्होंने कहा कि जो मनुष्य राम के आदर्शों को अपने जीवन में धारण नहीं करेगा वह उनकी पूजा नहीं कर सकता। पंडित जी ने राम-भरत संवाद की चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि विश्व के इतिहास में राम व भरत जैसे भाईयों का उदाहरण नहीं मिलता। यह दोनों एक दूसरे के प्रति पूर्णरुपेण समर्पित थे। पं0 अमरनाथ शास्त्री ने भरत जी द्वारा राम की चरण पादुकाओं को सिंहासन पर रख कर शासन करने की चर्चा की। उन्होंने राम व लक्ष्मण के संवादों पर भी प्रकाश डाला। सीता हरण के प्रसंग में लक्ष्मण ने राम को कहा था कि मैं तो माता सीता के चरणों में पहने जाने वाले आभूषणों को ही कुछ कुछ पहचान सकता हूं। मैंने कभी उनके मुखमण्डल पर दृष्टिपात नहीं किया। इस कारण कर्ण आदि आभूषण उनके हैं या नहीं, वह नहीं बता सकते। पंडित जी ने पाश्चात्य विकृतियों पर भी प्रकाश डाला और वक्तव्य को विराम दिया। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य