ग़ज़ल
सियासती दांवपेंच में आवाम खो जाती है
बंद कमरों में चीखें भी कभी सो जाती है
अखबार भी कितने मजबूर हो गए है
ख़बर कुचलकर तारीफ़ की जाती है
अख़बार भी सिकुड़कर बैठ गया है
लगता किसी पे लगाम लगाई जाती है
देश की आझादी के मायने बहुत है
बाहरी नहीं अपनों से पाबंदी लग जाती है
श्याम रंगी सियाही तो कागज़ श्वेत रहा
ख़ुशहाल ज़िंदगी डरकर दब जाती है
चंद हाथों में सत्ता का सिमट जाना यूँ
कलम के बंदों की तौहीन हो जाती है
तुम आवाज़ भी कैसे उठाओगे यहाँ
कौन सुनेगा झूठ की नदी बह जाती है
— पंकज त्रिवेदी