अनमेल प्रेमकथा
मैं काला कोयला पर्वतों का तू सागर की मोती है,
मैं क्रोधानल शंकर की तू ज्वाला जी की ज्योति है।
मैं सागर की गहराई तू हिम शिखर की ऊचांई है,
मैं पानी नाले का तू गंगा सी शिव जटा को धोती है।1।
तू शीत हवा पुरुवाई की मैं पछावा का राही हूँ,
तू माता पिता की मन्नत है मैं सन्तान अनचाही हूँ।
तू मेनका सी कोमल प्यारी मै तो भैरब बाबा हूँ ,
तू सृजन का अंकुर है मैं प्रलयकारी तबाही हूँ ।2।
मैं मूर्ख कालिदास सा तू विद्योत्तमा सी नारी है,
मैं नौकर चाकर महलो का तू उर्वशी सी प्यारी है।
तू परी देव लोक की मैं झोपड पट्टी का वासी हूँ,
तू सूत्रधार प्रेम मिलन की हम जग में वैराग्य धारी है।3।
तू स्वाती में बून्द पहली मैं भूखा प्यासा चकवा हूँ,
तू सोने की गागर सी मैं कच्ची मिट्टी का करवा हूँ।
तू पूनम की रात उजयारी मैं अमावस का हू अंधेरा,
तू बसन्त की कोयल प्यारी मैं श्राद्ध पक्ष का कौवा हूँ।4।
मैं पौष की कूल रात तू जेठ की तपती धूप सी हाॅट प्रिये
तू जन जन की झूठी नेता हम जन के मन का वोट प्रिये।।
तू आषाड़ की रिमझिम वर्षा मैं श्रावण की मूसलाधार हूँ,
मै नोट पुराना पांच सौ का तू न्यू दो हजार नोट प्रिये।5।
तू दिल्ली का लाल किला मैं भूखा कालाहाण्डी जिला हूँ,
तू सर्व सद्गुणी वृन्दा सी मैं शालग्राम की शिला हूँ।
तू शाहजाहा का ताजमहल मैं राम लला का तम्बू हूँ,
तू हिम शिखर की हिमानी मै तो रेगिस्तानी टिला हूँ।6।
फिर कैसे होगा प्यार प्रिये जीवन पथ तैयार प्रिये,
इन्दु दिवाकर का जग में मेल नही होता यार प्रिये।
और कैसे दाल गलेगी केवल मीठी मीठी बातों में,
मेरा तुझ पर तेरा मुझ पर यदि नही हो अधिकार प्रिये।7।
— रामचन्द्र ममगाँई “पंकज”
देवभूमि हरिद्वार