कविता – बेटी
आसान नहीं यहाँ बेटी बन पाना.
खुद की इच्छाये दबाकर दुसरो को खुश रख पाना.
जनम से ही भेदभाव के रंग में रंग जाना.
आसान नहीं यहाँ बेटी बन पाना.
पिता की लाड़ली बनकर सब पे रोब ज़माना.
फिर पिता की इज्जत के लिए खुद की भावनाएं छुपाना.
खुद के लिए अपनों से पराया धन सुन पाना.
आसान नहीं यहाँ बेटी बन पाना.
बेटी हो इसलिए जरूरी है हर चीज में शर्माना.
मर्दो की बेसर्मी को अपनी आखो में समाना.
अपनों के लिए खुद की न्योछवर लुटाना.
आसान नहीं यहाँ बेटी बन पाना.
शादी के अहम फैसले खुद ना ले पाना.
अनचाहे रिश्तो का बोझ उम्र भर उठाना.
पिता के खातिर हर जुल्म सह जाना.
मायके में ससुराल की झूठी ख़ुशी दिखाना.
आसान नहीं यहाँ बेटी बन पाना.
समाज के तानो से खुद को बचाना.
मर्दो के घूरने पे खुद की ही नजरो को झुखाना.
देर से घर आने पे खुद को पाबंदियो की सजा दिलवाना.
बिना तुम्हे जाने समाज का तुम्हे गलत ठहरना.
आसान नहीं यहाँ बेटी बन पाना.
बाहर कोई गलत करे तो सजा दिलवाना.
और घर में कुछ गलत हो तो खुद को ही दबाना.
घरवालों की वजह से खुद अपनी आत्मा को चोट पहुंचना.
क्या वाकई आसान है यहाँ बेटी बन पाना ?
अब जरूरी है|
खुद को हौसले की मिशाल बनाना.
मेरे होने से मर्द है, मर्द के होने से में नहीं.
यह आइना दुनिया को दिखाना.
खुद को सर्वश्रेष्ठ बनाकर दुनिया को उसकी औकात दिखाना.
अब जरूरी है खुद के लिए खुद ही आवाज उठाना.
तब आसान होगा यहाँ बेटी का बेटी बन पाना.
तब आसान होगा यहाँ बेटी का बेटी बन पाना.
— दीप्ति शर्मा (दुर्गेश)