मनुष्य जीवन केवल धन व सुख-सुविधायें अर्जित करने के लिये नहीं है
ओ३म्
विश्व में इस समय मनुष्यों की जनसंख्या 7 अरब से कुछ अधिक मानी जाती है। सभी मनुष्य शारीरिक बनावट की दृष्टि से एक समान हैं, भले ही कोई ईसाई, इस्लाम, हिन्दू व अन्य किसी मत को माने। मनुष्य के शरीर की संरचना को देख कर ज्ञान होता है कि इनको बनाने वाली एक ही सत्ता है। संसार के सबसे पुराने ग्रन्थ वेद हैं। इन वेदों की मान्यताओं के आधार पर ही विगत 1.96 अरब वर्षों से भी अधिक समय तक विश्व का शासन सफलतापूर्वक चला है। सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्राप्त वेदमत के अनुसार इस संसार तथा मनुष्य आदि प्राणियों का उत्पत्तिकर्त्ता एक ईश्वर है। वह ईश्वर कैसा है? आत्मा क्या है? सृष्टि की उत्पत्ति किस कारण पदार्थ व वस्तु से हुई है? ईश्वर को सृष्टि बनाने का ज्ञान व सामर्थ्य उसमें अनादि काल से है। ऐसी मान्यताओं व सभी प्रश्नों के उत्तर वेद एवं वेदानुकूल ऋष्योक्त ग्रन्थों में सुलभ होते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने इन सभी प्रश्नों के वेदानुकूल उत्तर अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” में दिये हैं। सत्यार्थप्रकाश संसार का धार्मिक एवं सामाजिक सहित वैदिक राजनीति के सिद्धान्तों व मान्यताओं का एक सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। इसमें वह ज्ञान है जो अन्यत्र कहीं से प्राप्त नहीं होता। ऋषि दयानन्द ने देश भर में घूम कर, तप व पुरुषार्थ कर तथा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अनेकानेक विद्वानों एवं वेद आदि सहस्रों ग्रन्थों का अध्ययन कर उस पूरे ज्ञान को सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नामक अपने दो ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। हमारा सौभाग्य है कि हमें बहुत थोड़े से प्रयत्न से यह समस्त दुर्लभ ज्ञान प्राप्त हुआ है। मनीषी पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने तो यहां तक लिखा है कि यदि इस ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” को प्राप्त करने के लिये उन्हें अपनी समस्त सम्पत्ति भी बेचनी पड़ती तब भी वह इस सौदे को लाभ का सौदा मानते। पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने इस अमृत ज्ञान के ग्रन्थ को लगभग 18 बार पढ़ा था और उन्होंने लिखा है कि हर बार उन्हें इस ग्रन्थ से नयी नयी बातें ज्ञात हुई व उनके ज्ञान में हर बार वृद्धि हुई है। हम समझते हैं कि सभी ऋषि भक्त आर्यों वा हिन्दुओं को जीवन भर वर्ष में दो बार इस महनीय ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये जिससे वह अविद्या से मुक्त होकर ईश्वर, जीवात्मा व अपने कर्तव्यों का सत्य व यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकें और शारीरिक, आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति सहित अपने परजन्म-पुनर्जन्म को भी उन्नत करके श्रेष्ठ देव योनि को प्राप्त हो सकें।
मनुष्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर है कि मनुष्य एक आत्मा है जो अपने पूर्वजन्मों के पाप-पुण्य कर्मों के आधार पर ईश्वर की न्याय व्यवस्था से मनुष्य योनि में भेजा गया है जिससे वह अपने पूर्व कर्मों का सुख व दुःख रुपी फल भोगते हुए भविष्य के जन्म के लिये भी सद्ज्ञान प्राप्त कर तदनुरुप पुण्य कर्म अर्जित कर सके। मनुष्य का शरीर पंच-तत्वों पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश से बना होता है। जीवात्मा जन्म लेता है और कुछ वर्ष की आयु के बाद इसकी मृत्यु हो जाती है। मनुष्य के पार्थिव शरीर में एक चेतन, शाश्वत, अनादि, चेतन, सनातन, अविनाशी, अजर, अमर, नित्य, ज्ञान एवं कर्म की सामर्थ्य से युक्त आत्मा होती है। इसका उद्देश्य अपने बन्धनों पर विजय पाना होता है। बन्धन उसके पूर्व किये हुए कर्मों के होते हैं। आत्म ने पूर्वजन्मों में पाप व पुण्य दोनों के किये होते हैं जिसका सर्वव्यापक व सबका साक्षी आदर्श न्यायाधीश परमात्मा न्याय करता है और इसके परिणामस्वरूप जीवात्मा सुख व दुःख भोगता है। सभी मनुष्य व जीवात्मायें सुख चाहती हैं, दुःख कोई नहीं चाहता। इस दुःख का कारण मनुष्य के अशुभ, मिथ्या, दूसरों का अपकार, देश व समाज विरोधी कार्य, असत्य व भ्रष्ट आचरण, लोभ की प्रवृत्ति, परिग्रह, काम व क्रोध का व्यवहार व आचरण, परपीड़ा, मांसाहार, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन, माता-पिता, वृद्धों व आचार्यों की अवज्ञा, दुष्टता, सदाचार की न्यूनता आदि अनेक कारण होते हैं। इन्हें दूर कर मनुष्य दुःख से निवृत्त हो सकता है। इसके साथ सुखों की प्राप्ति के लिये इन पाप कर्मों के विपरीत काम करने होते हैं। उस पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं।
सत्य कर्मों को शुभ कर्म कहा जाता है। वेदाध्ययन सबसे बड़ा शुभ कर्म है। प्रत्येक मनुष्य चाहे वह भारत में रहता हो या फिर विश्व के किसी भी भूभाग पर, वेदाध्ययन व वेदाचरण से ही वह सच्चा मनुष्य बन सकता है। वेदाध्ययन से मनुष्य को ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप सहित अपनी आत्मा, उसके पूर्व के असंख्य जन्मों व भविष्य के भी अनन्त जन्मों व मोक्ष का ज्ञान होता है। अन्य मत-मतान्तर प्रायः इस ज्ञान से दूर हैं। इस ज्ञान के न होने से मनुष्य को अनेक प्रकार की हानियां होती है। वह सांसारिक प्रलोभनों में फंस जाता है और दुःख देने वाले कार्यों को करता है। इससे उसकी आत्मा का पतन होता है। वेदाध्ययन करने वाला मनुष्य यदि पतन का कार्य करता है तो उसे उसका परिणाम ज्ञात रहता है। वह अपने देश व समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को जानकर उनका निर्वहन करता है। लोगों के प्रति सत्याचार का व्यवहार करता है। ज्ञान प्राप्ति को महत्व देता है तथा जीवन व्यतीत करने के लिये सत्य कर्मों से उसे जो साधन व धन प्राप्त होता है, उसी में वह सन्तुष्ट रहता है। वह लोभ नहीं करता। छोटे भवन, सादा व सरल जीवन, उच्च विचार, परोपकार सहित ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र-देवयज्ञ, माता-पिता-आचार्यों-वृद्धों की सेवा-सत्कार एवं सभी प्राणियों के प्रति समभाव व सद्भाव रखता है। वह मांसाहार किंचित नहीं करता और न ही अन्य किन्हीं अण्डा, तम्बाकू आदि अभक्ष्य पदार्थो का सेवन करता है। ऐसा मनुष्य मदिरापान व धूम्रपान भी नहीं करता। इन अभक्ष्य पदार्थों से आत्मा मलिन व ईश्वर भक्ति से दूर होती है। ऐसा जीवन व्यतीत करते हुए वह सुखों को प्राप्त होता है जो उसे ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त होते हैं। ऐसा करने से उसे एक लाभ यह होता है कि वह इस जन्म में तो यश व सुख प्राप्त करता ही है, अपितु वृद्धावस्था व इससे पूर्व मृत्यु होने पर भी उसे पशु-पक्षी-कीट-पतंग आदि असंख्य भोग योनियों में नहीं जाना होता। वह देवयोनि जो मनुष्य योनि में श्रेष्ठ अवस्था होती है, उसमें धार्मिक व वेदज्ञानी माता-पिता व परिवारों में जन्म लेता है और उन्नति करते हुए कुछ जन्मों में मोक्ष को प्राप्त कर बहुत लम्बी अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक मोक्ष की अवस्था में रहते हुए सभी दुःखों से मुक्त व आनन्द से युक्त रहता है।
यदि मनुष्य सद्कर्म न करके असद् व अशुभ कर्मों को भी करता है तो उसका अगला जन्म नीच पशु आदि योनियों में हो सकता है जहां मनुष्यों की दृष्टि में अनेकानेक अधिक दुःख होते हैं। अन्य योनियों के जीवन पर विचार कर उन दुःखों को जाना जा सकता है। इसलिये मनुष्य को असद् कर्म न करके सदैव शुभ कर्म ही करने चाहियें और जीवन को उन्नत बनाने के लिये वेदाध्ययन सहित ऋषियों के ग्रन्थ व इनसे पूर्व सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि स्वामी दयानन्द के सभी ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इससे उन्हें वेद तक पहुंचने में सरलता होने सहित सहायता मिलेगी और जीवन में लाभ होगा।
आज के समाज पर दृष्टि डाले तो सभी मनुष्य ज्ञान व विवेक से शून्य प्रतीत होते हैं। कोई जड़ पूजा कर रहा है तो कुछ लोग उसके विरोधी व स्वयं को मूर्ति भंजक बताते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो धन के प्रलोभन व भय आदि से लोगों का धर्मान्तरण करने में लगे रहते हैं। यदा-कदा इस विषयक समाचार स्थानीय स्तर पर व टीवी आदि के माध्यम से भी मिल जाते हैं। ऐसे समय में हिन्दुओं के ऐसे संगठन की आवश्यकता है कि कोई इनका भय व प्रलोभन से धर्मान्तरण न कर सके। इस लक्ष्य को तभी पूरा किया जा सकता है कि जब हिन्दू समाज अपने सभी अन्धविश्वासों, पाखण्डों एवं कुरीतियों को दूर कर दें। विद्वान बताते हैं कि हिन्दू समाज ऐसा नहीं कर सकता। इसके दुष्परिणाम जो अतीत के औरंगजेब आदि मुस्लिम व अंग्रेजों के शासन में हुये हैं, भविष्य में भी उनकी पुनरावृत्ति हो सकती है। जनसंख्या के आंकड़ो में होता जा रहा असन्तुलन भी चिन्ता उत्पन्न करता है। वैदिक धर्म व संस्कृति सुदृण होने के स्थान पर निर्बल होती जा रही प्रतीत होती है। अतः आर्यसमाज को इस विषय में अपना ध्यान व शक्ति को लगाना चाहिये और विद्वानों से इसका समाधान पूछना चाहिये।
मनुष्य की जीवात्मा ज्ञान प्राप्ति व पुरुषार्थ की सामर्थ्य से युक्त है। ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान मनुष्य के लिये सर्वाधिक उपयोगी एवं लाभप्रद है। अन्य ज्ञान व विज्ञान तो केवल सुख-सुविधाओं को प्राप्त कराते हैं जिसका लाभ अधिक से अधिक हमें इस जीवन में ही मिल सकता है। विवेकी मनुष्य वर्तमान व भविष्य दोनों की चिन्ता करता है। धर्म की परिभाषा ही यह है कि ऐसे कर्तव्य व कर्म जिससे हमारे जीवन का अभ्युदय हो और परजन्म में निःश्रेयस प्राप्त हो, धर्म कहते हैं। इसकी पूर्ति केवल वैदिक धर्म से ही होती है और इसके लिये वैदिक ज्ञान सहित तदनुकूल आचरण ही मुख्य है। महर्षि दयानन्द ने हमें वेद व मनुष्य जीवन का महत्व समझाया है। हमें उसके अनुकूल जीवन व्यतीत करते हुए व्यवहार व वेदाचरण करना है। इसी में हमारे जीवन की सफलता है। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य