कविता-वक्त
मैंने वक़्त को हालातो में बदलते देखा है |
अपनों को गैरो में बदलते देखा है |
बरसात में बंजर जमीन को गीली मिट्टी से महक़ते देखा है |
औरो की तो बात क्या करु |
मैने बचपन को जवानी का लालच देकर बुढ़ापे में पनपते देखा है |
मैंने वक़्त को हालातो में बदलते देखा है |
जिंदगी से एक तजुर्बा मैने भी सीखा |
के अगर दिल में कुछ खुवाहिशे हो तो,
बाप की कमाई से पूरा कर लेना |
मैंने अपनी कमाई को गुजारो में तप्दील होते देख़ा |
मैंने वक़्त को हालातो में बदलते देखा है |
हो कोई कितना भी करीबी अपना दुःख और और बर्बादी बाट लेना |
मगर न बाटना अपनी कामयाबी ,क्यूकि मैने,
कामयाबी में दोस्त को दुश्मन बनते देखा है
मैंने वक़्त को हालातो में बदलते देखा है |
बेशक रोयो घर में,और टूट जाओ अंदर ही अंदर ,
पर न कहो किसी से अपना दुःख-दर्द ,
क्यूकि मैने लोगो को रोकर दुःख पूछते ,
और हसकर खिल्ली उड़ाते देखा है |
मैंने वक़्त को हालातो में बदलते देखा है |
बच्चो के बचपन के लिए ,माँ-बाप की ,
जवानी को मजबूरी का लिबाज पहने देखा ,
और उनके भविष्य के लये बुढ़ापे की इछाओ ,
को उनकी चेहरे की झुर्रियों में सुकड़ते देखा |
और अंतिम समय में वर्द्धा आश्रम में दम तोड़ते देखा |
मैंने वक़्त को हालातो में बदलते देखा है |
पेड़ में हरियाली और पतझड़ आने पर पत्तो
के रंग बदलने में मैंने महीनो का फर्क देखा |
ऋतु बदलने में भी मैंने तीन महीनो का अंतर देखा |
लेकिन अफ़सोस होता है ये कहने में के मैंने
इंसानो को हर पल हर वक़्त रंग बदलते देखा |
मैंने वक़्त को हालातो में बदलते देखा है |
और एक अंतिम पंक्ति |
बिना घड़ी वाले को मैंने वक़्त का इंतज़ार करते देखा |
और घड़ी वाले को बार बार समय ताकते देखा |
बीमार को एक सांस ज्यादा मिल जाये ये दुआ मांगते देखा |
पूरी जिंदगी है जिसके पास उसे आत्महत्या की तकनीक अपनाते देखा |
और फिर एक दिन मैंने जिंदगी को इंसान को धोखा देकर अचानक
मौत की नींद सुलाते देखा |
मैंने वक़्त को हालातो में बदलते देखा है |