व्यथा
एक दिन दोपहर मैं चला जा रहा था,
सूनसान पतला सा पगडंडी रास्ता था।
अचानक मेरे कानों में आवाज आई,
पलट कर देखा तो दिखी एक बूढ़ी माई।
मैं बोला कहो क्या बात है मैय्या,
वो बोली मैं क्या पीड़ा बताऊं भैय्या।
मैने पूंछा कौन हो? कहाँ घर है तुम्हारा?,
इस चिलचिलाती धूप में क्या काम है तुम्हारा?
वो फूटकर रोई बोली मेरा नाम है पृथ्वी,
मेरा यहां कोई नही फिर भी सब कहते हैं माता पृथ्वी।
मैं सब प्राणियों को जननी समान सबकुछ देती हूं,
जल, अन्न, फल, वायु, पथिकों को ठंडी छाया देती हूं।
फिर भी सब मारते सीने को फाड़ कर पानी निकालते हैं
मेरे शरीर के बाल सरीखे पेड़ों को काटते जलाते हैं।
सब लोग मिलकर मुझको असहनीय पीड़ा हैं देते,
इसलिये देश छोड़कर जा रही हूं दूर रोते-रोते।
मैन कहा तुम्हारे चरण पकड़ता हूं अब रुक जाओ मैय्या
छोड़कर चली जाओगी तो ये संसार मर जाएगा मैय्या।
मैने कहा धैर्य रखो मैं सब आपकी पीड़ा समझता हूं
मनुष्य को जाकर सब आपकी पीड़ा समझाता हूं।
इतना कहकर मैं चला आया बताता हूँ आपको,
मत काटो पेड़ों को , मत बर्बाद करो पानी को।
यदि जीना है धरती पर होकर प्रसन्न रस राग गाओ,
तो कहना मानो पृथ्वी का पेड़ लगाओ, पानी बरसाओ।