गीत – श्रमिक जीवन
कब जीवन है सुखद सरल सा , कठिनाई में ढलना है।
शीष धार लकड़ी का गठठर ,तीव्र वेग से चलना है ।
रहने को नहि ठौर ठिकाना ,बालक छोड़ कहां आऊँ ।
हुआ क्षुधातुर शिशु कोमल सा ,स्तन पान कराती जाऊँ ।
ग्रीष्म ऋतु की अकुलाहट के ,सँग सँग शिशु को पलना है
शीश धार लकड़ी का गठठर ,तीव्र वेग से चलना है ।।
मलिन हुई है कंचन काया ,लेकिन मुख पर रोष नही ।
मेरे भाग्य यही बदा है ,ईश्वर तेरा दोष नही ।
क्रूर नियति हो गई मजबूरी ,गिरकर आप सँभलना है ।।
शीश धार लकड़ी का गठठर ,तीव्र वेग से चलना है ।।
नही वसन है तन पर पूरे , धूप चुभी है पाँवों में ।
घर मे नही अन्न का दाना ,बदहाली है गाँवों में ।
कोस दूर से लकड़ी लाने ,घर से रोज निकलना है ।।
शीश धार लकड़ी का गठठर ,तीव्र वेग से चलना है । ।
— रीना गोयल ( हरियाणा)