कविता – गरीबी
गरीबी की बस इतनी सी कहानी है |
हाथ में दबे दो मुट्ठी चून की ,
मंदी सी आंच पे रोटी पकानी है |
कशमकश में है उनकी जिंदगी भी ये सोचकर के ,
किस तरह इन्हे आज और भूखे पेट से थोड़ी सी मोहलत दिलानी है |
गरीबी की बस इतनी सी कहानी है |
नंगा बदन , चोट से छीले हुए पैर ,
आखो में चमकता चीजो का आभाव ,
किसी के हाथ में कटोरा ,तो किसी के कांधे पे ,
लटकती कचरे की जिम्मेदारी है |
गरीबी की बस इतनी सी कहानी है |
अनजान है ये दुनिया के ऐसो – आराम से
और वंचित है अपने अधिकारों से ,
बस इसिलए इनके अधिकारों और खुशियों,
की एक गंगा इनके जीवन में भी बहानी है |
गरीबी की बस इतनी सी कहानी है |
कोशिश है अब के देकर इनके हाथ में किताब ,
कामयाबी की लौ इनके जीवन में जलानी है |
कर के इनके जीवन में उजाला दुनिया को इनकी रौशनी दिखानी है |
गरीबी की बस इतनी सी कहानी है |
और अंतिम पंक्ति युवाओ के लये सुधार की ओर ,
ना घूमे कोई बच्चा सिग्नल प भूखा ,
न फैलाये किसी के आगे हाथ ,
और
टेंगा हो कंधो किताबो का भार ,
मिले इन्हे भी समानता का अधिकार ,
इस मुहीन क़ी जिम्मेदारी भारत देश के हर युवा को उठानी है |
गरीबी की बस इतनी सी कहानी है |
गरीबी की बस इतनी सी कहानी है |
— दीप्ति शर्मा (दुर्गेश)