हम क्या से क्या हो गये
हम क्या से क्या हो गये
भ्रम में पड़े बीमार हो गये
हिंदू-मुस्लिम करते-करते
खूनी दंगों के शिकार हो गये
मंदिर-मस्जिद बनाते-बनाते
हम स्वयं के घर से बेघर हो गये
सही क्या और गलत क्या
पता लगाते-लगाते गुम हो गये
छलावे से भरा रौनकी बाजार
झूठे यहाँ माला-माल हो गये
शैतानी शोर-गुल में कैसे
इंसानीबोल दफन हो गये
जग की बेमतलबी बातों में
लोभ, द्वेष के कारोबार हो गये
राम-कृष्ण, गौतम के वंशज
आज हम क्या से क्या हो गये
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
बहुत बढ़िया कविता. हार्दिक बधाई