सुगत सवैया- परिवर्तन
परिवर्तन है नियम प्रकृति का, परिवर्तित चहुँ दिश होती है।
मन, समाज, स्थिति, ऋतुओं में, सृष्टि नवल कुछ तो बोती है।
कुछ नवीन हर पल होता है, यह विकास परिवर्तन का है।
तुम देखो अनुवेषन कर कुछ, उत्तर तब मिलता मन का है।
कुछ प्रश्नों में उलझ हृदय की, अजब दशा क्योंकर होती है।
मन, समाज, स्थिति, ऋतुओं में, सृष्टि नवल कुछ तो बोती है।
परिवर्तन सामाजिक हों कुछ, सत मारग भी दिखलाते हैं।
ढल जाते हैं व्यवहारों में, और सभ्यता सिखलाते हैं।
उत्कंठा उत्तम बनने की, जागृत मन मे तब होती है।
मन, समाज, स्थिति, ऋतुओं में, सृष्टि नवल कुछ तो बोती है।
माना है बदलाव जरूरी, पर नैतिकता बहुत जरूरी।
पैदा मन में करो आत्मबल, आध्यात्मिकता बहुत जरूरी।
सखा भाव जब मन उपजे तो, दूर दूरियां भी होती हैं।
मन, समाज, स्थिति, ऋतुओं में, सृष्टि नवल कुछ तो बोती है।
— रीना गोयल (हरियाणा)