लघुकथा

ज़िद्दी परिंदा इंसान

 

“उम्मीदों से बँधा एक ज़िद्दी परिंदा है इंसान, जो घायल भी उम्मीदों से है और ज़िंदा भी उम्मीदों पर है।”

कैंसर अपने आख़िरी पड़ाव पर पहुँच गया था परंतु रामशरण जी अभी भी इसी उम्मीद में थे कि बेटी या बेटा कोई तो आयेगा और मुझे डा० के पास ले जाकर इस मुसीबत से छुटकारा दिलायेगा! मीना यह सब देखती और छिपकर बहुत रोती। उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था क्या करे?
अब वे असहनीय तकलीफ़ से गुज़र रहे थे। बस उन्होंने एक ही रट लगा रखी थी कि “बेटी या बेटे को बुलाओ वे ही मुझे इससे छुटकारा दिला सकते हैं।”
“किस मुँह से बुलाऊँ उनको, उन्होंने तो बिल्कुल ठीक इलाज़ कराया था परंतु आपने ही पैसों के कारण दवाई लेनी बंद कर दी थी। ना जाने दामाद जी और बहु रानी क्या सोचेंगें?” बड़बड़ाती हुई कमरे से बाहर जाती है।
अगले दिन बेटी और दामाद को देखकर उन्होंने ठंडी साँस ली और पूछा “भाई कब तक आयेगा?”
“बस शाम तक भइया भी आ जायेंगें आप चिंता मत करो सब ठीक हो जायेगा।” कहकर आँखों में आँसू लिये हुए बेटी नैना पापा के पास बैठ जाती है।
रामशरण जी ने बेटी का हाथ अपने हाथ में थामा और………“अरे यह क्या? पापा” कहकर जोर से चिल्लाती है। माँ भागकर आती हैं पर बहुत देर हो चुकी थी। उम्मीदों से बँधा ज़िद्दी परिंदा रूपी इंसान आकाश की ओर उड़ चला था और पीछे छोड़ चला उम्मीदों का पिटारा……..

मौलिक रचना
नूतन गर्ग(दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक