बेटियों संबंधी नीतियों की सफलता हेतु जरुरी है गांवों में बाल लिंगानुपात का सटीक मूल्यांकन
भारत में असंतुलित बाल लिंगानुपात बच्चों के जन्म और लिंग आधारित भेदभावपूर्ण प्रथाओं का सबसे बड़ा प्रमाण है। हाल ही में प्रकाशित एक शोध में ग्रामीण स्तर पर बाल लिंगानुपात में सबसे अधिक भिन्नता देखने को मिली है।
शोध के अनुसार भारत में गांवों में बाल लिंगानुपात विविधता लगभग 96 प्रतिशत है, जबकि राज्य स्तर पर यह केवल 3 प्रतिशत और तहसील व जिला स्तरों पर 1 प्रतिशत या उससे भी कम आंकी गई है। केवल गांवों के स्तर पर किए गए मूल्यांकन दर्शाते हैं कि बालक और बालिकाओं की अधिकतम संख्या के आधार पर क्रमशः 39 प्रतिशत बालक-बहुल गांव और 28 प्रतिशत बालिका-बहुल गांव हैं। सिर्फ 11 प्रतिशत गांवों में ही सामान्य बाल लिंगानुपात है। इनके अलावा जहां एक ओर 12 प्रतिशत गांवों में बालिकाओं की कमी पाई गई, वहीं 10 प्रतिशत गांव ऐसे भी हैं, जिनमें बालिकाएं अधिक हैं।
एक ही देश में होते हुए भी अपनी विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विभिन्नता के कारण हर राज्य के अलग अलग गांवों में बाल लिंगानुपात में दिखने वाली भिन्नता की प्रवृत्तियों और तरीकों में समानता नहीं हैं। सभी जगह बाल लिंगानुपात की स्थिति अलग अलग है। शोध में पाया गया है कि उत्तर पश्चिमी राज्यों (पंजाब, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश), गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र, महाराष्ट्र के देश, खानदेश और मराठवाड़ा क्षेत्र, तमिलनाडू के पूर्वी ऊपरी क्षेत्र तथा ओडिशा के तटीय व डेल्टा क्षेत्रों में अधिकांश गांवों में बालकों की संख्या सर्वाधिक है। जबकि अधिकतम बालिकाओं वाले गांव देश के दक्षिण पूर्वी भागों जैसे महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ओडिशा के उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के भागों में हैं।
अध्ययन में भारतीय एवं अमेरिकी वैज्ञानिकों ने 2011 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर विशेष रुप से भारत के कुल 36 राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों के 634 जिलों और 5895 तहसीलों के अन्तर्गत आने वाले 5,87,043 ग्रामीण गांवों में 0-6 आयुवर्ग के कुल 121,266,984 बच्चों के बीच बाल लिंगानुपात के विश्लेषण किए हैं। चार स्तरों क्रमशः गांव, तहसील, जिला और राज्य पर बाल लिंगानुपात में भिन्नता का मूल्यांकन करने के लिए चारस्तरीय भिन्नता घटक मॉडल विकसित किया गया। इसमें बाललिंगानुपात हेतु प्रति 100 बालकों पर बालिकाओं की संख्या सीमा क्रमशः 88 से कम, 88-93, 93-98, 98-103 और 103 से ज्यादा सहित कुल पांच श्रेणियां निर्धारित की गईं थीं।
वरिष्ठ भारतीय शोधकर्ता हारवर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुब्रमण्यन के अनुसार अभी तक बाल लिंगानुपात को लेकर जो भी अध्ययन हुए हैं, वे मुख्य रुप से राज्य आदि उच्च स्तरों और बालकों की संख्या पर आधारित लिंगानुपात को दर्शाते हैं। इस अध्ययन में पहली बार गांवों के स्तर और बालिकाओं की संख्या के आधार पर बालिका बहुल गांवों को भी सामने लाया गया है। असंतुलित बाल-लिंगानुपात देश के सामने बड़ी चुनौती बन चुका है। यह चुनौती सिर्फ सरकार के लिए ही नहीं है परंतु पूरे समाज के लिए एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ जैसी सरकारी योजनाएं सही मायनों में हर गांव की बेटियों तक पहुंचे, उसके लिए इस अध्ययन के बाललिंगानुपात आंकड़े काफी मददगार साबित हो सकते हैं।
हारवर्ड यूनिवर्सिटी की प्रमुख अमेरिकी शोधकर्ता रॉकली किम का कहना है कि बाललिंगानुपात जैसे किसी एक विशेष कारक का विशुद्ध और प्रभावी मूल्यांकन करने के लिए निम्नतम क्षेत्र पर जाकर विश्लेषण करना होता है। इसके लिए भारत में गांव सबसे उचित इकाई हो सकते हैं। राज्य और जिला जैसे उच्च स्तरों पर आंकलित किए गए निम्न विविधता दिखाने वाले बाल लिंगानुपात आंकड़ों से वास्तविक स्थिति का सटीक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है।
इस शोध से एक महत्वपूर्ण बात सामने आई है कि वर्तमान में भारत में लगभग समान प्रतिशतता के साथ बालिका-बहुल गाँव और बालक-बहुल गाँव सह-अस्तित्व में हैं। भले ही भारतीय समाज में बेटियों के प्रति पूर्वागृहीय और दुराव रखने वाले व्यवहार, पितृसत्तात्मक सोच, सामाजिक-आर्थिक दबाव, असुरक्षा, आधुनिक चिकित्सकीय तकनीकों का दुरुपयोग प्रतिकूल बाल लिंगानुपात की समस्या के प्रमुख कारण माने जाते रहे हैं। इन कारणों को दृष्टिगत रखते हुए भी विभिन्न स्तरों पर मिल रहे असंतुलित बाल लिंगानुपात के प्राकृतिक और सामाजिक कारणों को गंभीरता से देखने और समझने की जरुरत है। मुख्यतः इसे एक स्थानीय घटना के तौर पर रखते हुए अधिक सटीक और लक्षित प्रयासों की आवश्यकता है। शोध से प्राप्त आंकड़े इस दिशा में सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं।