ग़ज़ल
बादल का अंदाज जुदा सा लगता है ।
सावन सारा सूखा सूखा लगता है ।।
जाने क्यूँ मरते हैं उस पर दीवाने ।
इश्क़ उसे जब खेल तमाशा लगता है ।।
काहकशाँ से टूटा जो इक तारा तो ।
चाँद का चेहरा उतरा उतरा लगता है ।।
तेरी अना से टूट रहा है वह रिश्ता ।
जिसकी ख़ातिर एक ज़माना लगता है ।।
आग से मत खेला करिए चुपके चुपके ।
घर जलने में एक शरारा लगता है ।।
दर्द विसाले यार ने ख़त में है लिक्खा ।
उस पर सुबहो शाम का पहरा लगता है ।।
छुप छुप कर सबने देखा रोते जिसको ।।
उसके दिल का ज़ख़्म पुराना लगता है ।
शम्अ जलेगा परवाना इक दिन तुुुझ से ।
हुस्न का तेरे ये दीवाना लगता है ।।
मांग रहा है वफ़ा के बदले जान कोई ।
कैसे कह दूं नेक इरादा लगता है।।
तुझको सारी रात निहारा करते हम ।
चाँद बता तू कौन हमारा लगता है ।।
लिख डाला है तुमने जो कुछ पन्नों में ।
यह तो मेरा एक फ़साना लगता है ।।
— डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
शब्दार्थ – काहकशाँ शुद्ध फ़ारसी शब्द उर्दू में कहकशाँ हिंदी में तारामंडल, शरारा -चिंगारी