दोहा
“दोहा”
व्यंग बुझौनी बतकही, कर देती लाचार
समझ गए तो जीत है, बरना दिल बेजार।।
हँस के मत विसराइये, कड़वी होती बात।
व्यंग वाण बिन तीर के, भर देता आघात।।
सहज भाव मृदुभासिनी, करती है जब व्यंग।
घायल हो जाता चमन, लेकर सातों रंग।।
व्यंग बिना बहती नहीं, महफ़िल में रसधार।
इक दूजे को नोचकर, देते हैं उपहार।।
बड़े-बड़े घंटाल हैं, बाँट रहे गुरुज्ञान।
तथ्य-कथ्य सारे नरम, व्यंग विघ्न अनुमान।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी