गीत
रिस गये हैं प्राण, खाली देह की अंजुल
छोड़कर तुम यूँ गये ज्यों सर्प की केंचुल..
आज हर संवेदना,सूना
ह्रदय परित्यक्त करके
हो चली मृतप्राय मनसा शक्ति को निश्शक्त करके
डस रहा सब कामनायें, स्मृति-संकुल
छोड़कर तुम यूँ गये ज्यों सर्प की केंचुल..
त्याग की ना धूप चाही
ना कोई माँगा समर्पण
पावसी बौछार ना ही रश्मियों का शुभ्र तर्पण
नेह-जल बिन सूखता उर-भूमि का तर्कुल
छोड़कर तुम यूँ गये ज्यों सर्प की केंचुल..
सजल हिय की वीचि में
परिताप के पंकज पिरोये
वार सीपी – शंख अपने , आतपी प्रस्तर समोये
देह-तटिनी प्राण के परित्याग को व्याकुल
छोड़कर तुम यूँ गये ज्यों सर्प की केंचुल..
पलक-पुलिनों पर व्यथा
बन अश्रुकण है आज फैली
प्रीति के पावन सरोवर की हुई है निधि विषैली
ताल में दम तोड़ता है राग का दादुल
छोड़कर तुम यूँ गये ज्यों सर्प की केंचुल..
— आराधना शुक्ला