मासूम बच्चे
साहब, मैंने दर्द पढ़ा नहीं,
देखा है, मैंने भूखे प्यासे
बच्चों को रोते देखा है।
मैंने स्टेशन पर उनको ,
बचपन खोते देखा है।
ये साहब ,ये साहब दिन भर
चिल्लाते हैं, जूते चप्पल से
लेकर गाली तक खाते हैं।
तब जाकर कहीं शाम को
ये बच्चें खाना खाते हैं।
लोगों को आकर्षित करने
के लिए ,ये गाना गाते हैं।
इनके सारे सपने स्टेशन
तक ही रह जाते हैं।
फुटपाथ ही इनका घर है,
फुटपाथ पे ही ये सो जाते हैं।
अपनी पीड़ा ये मासूम ,
नहीं किसी से कह पाते हैं।
हाथ फैलाये ,ये साहब, ये
साहब,दिन भर ये चिल्लाते हैं।
— विकास शाहजहाँपुरी